देहरादून:हिमाचल प्रदेश के किन्नौर (Kinnaur landslide) में बुधवार 11 अगस्त को बड़ा हादसा हुआ. यहां भूस्खलन (landslide) चपेट में एक बस समेत कई वाहन आ गए. इस हादसे में अभीतक 14 लोगों की मौत हुई है. जबकि 13 लोग घायल हुए हैं. वहीं बस में सवार लोगों की तलाश की जा रही है. हालिया दिनों में हिमाचल और उत्तराखंड में भूस्खलन की घटनाओं में बढ़ोतरी देखी है. ऐसे में एक बार फिर सवाल खड़े होने लगे है कि पहाड़ों में इतना ज्यादा भूस्खलन (landslide) क्यों हो रहा है? क्यों पहाड़ पहले से ज्याद दरक रहे है.
किन्नौर भूस्खलन (Kinnaur landslide) हादसे ने एक बार फिर लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि विकास के नाम पर हम पहाड़ों का विनाश तो नहीं कर रहे है? क्योंकि पहाड़ी राज्यों के लैंडस्लाइड एक नासूर बनकर रह गया है. इस चुनौती से पार पाने के लिए प्रयास तो बहुत किए जा रहे है, लेकिन धरातल पर उनका कोई असर होता नहीं दिख रहा है.
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भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी: हाल फिलहाल में भूस्खलन की घटनाओं में बढ़ोतरी देखी गई है. उत्तराखंड में भूस्खलन आम बात हो गई है. बरसात के दिनों में तो खतरा चार गुना बढ़ जाता है. यहीं कारण है कि मॉनसून में उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में सफर करना मतलब जान जोखिम में डालना है. क्योंकि कब कहा से मौत बरस जाए कुछ नहीं कह सकते है.
लैंडस्लाइड जोन बढ़े: पहाड़ी जिलों में पहले के मुकाबले लैंडस्लाइ जोन बढ़ गए हैं. इसका एक बड़ा कारण पहाड़ों को बड़ी मात्रा में क्षति पहुंचाना भी है, जिसका परिणाम हमारे सामने है. देश-दुनिया की बड़ी आपदाओं में से एक भूस्खलन भी है, जिसमें हर साल हजारों लोगों की जान जाती है. अन्य नुकसान की तो बात ही छोड़ दीजिए. हाल फिलहाल में प्रदेश में करीब 84 भूस्खलन क्षेत्र सक्रिय है.
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बरसात में भूस्खलन का कारण:वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (Wadia Institute of Himalayan Geology) के वैज्ञानिकों की माने तो सबसे ज्यादा भूस्खलन बारिश के दिनों में होता है. दरअसल, बारिश होने की वजह से पहाड़ भारी (लोडेड) हो जाते हैं. ऐसे में जिन-जिन क्षेत्र में रोड के चौड़ीकरण का कार्य किया जाता है, वहां पर भूस्खलन (पहाड़ी दरकना) का खतरा बढ़ जाता है.
क्योंकि रोड चौड़ीकरण के दौरान हिमालयी क्षेत्रों में पहाड़ों की कटाई भी की जाती है. ऐसे में पहाड़ अपने आपको स्टेबल करते हैं. इसकी वजह से भूस्खलन जैसी घटनाएं होती हैं. इसके साथ ही हिमालयी क्षेत्रों में होने वाली बर्फबारी और बारिश चट्टानों व मिट्टी को मुलायम बना देती है. इसके साथ ही उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ढलानों पर गुरुत्वाकर्षण बल अधिक होने की वजह से चट्टानें और मिट्टी नीचे खिसकने लगती है. इसके चलते पहाड़ से मलबा और बोल्डर नीचे आ जाते है, जिसे भूस्खलन कहते हैं.
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12 फीसदी हिस्सा भूस्खलन से प्रभावित: देश में कुल भूमि का करीब 12 फीसदी हिस्सा भूस्खलन से प्रभावित है, जहां आए दिन भूस्खलन होता है. ये क्षेत्र भूस्खलन के लिहाज से काफी संवेदनशील है. उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के अलावा देश के पश्चिमी घाट में नीलगिरि की पहाड़ियां, कोंकण क्षेत्र में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक और गोवा, आंध्र प्रदेश का पूर्वी क्षेत्र, पूर्वी हिमालय क्षेत्रों में दार्जिलिंग, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश, पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और उत्तराखंड के कई इलाके भूस्खलन के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं.
नुकसान को किया जा सकता है कम: वाडिया इंस्टीट्यूट (Wadia Institute) के वैज्ञानिक सुशील कुमार रुहेला ने कहा कि लैंडस्लाइड संभावित क्षेत्रों को चिन्हित करने के बाद यदि उनका ट्रीटमेंट किया जाए तो भूस्खलन के होने वाले नुकसान को काफी कम किया जा सकता है. इसके लिए जरूर है कि भूस्खलन संभावित क्षेत्रों में वृक्षारोपण का कार्य जाए.
इसके साथ ही भूस्खलन संभावित क्षेत्रों में अधिक से अधिक रिटेनिंग वॉल का निर्माण कार्य जाए. भूस्खलन संभावित इलाकों में कमजोर संरचनाओं को मजबूत किया जाए. पर्वतीय क्षेत्रों में जल निकासी की व्यवस्था करने के साथ ही जिन क्षेत्रों में भूस्खलन की संभावना सबसे अधिक है, उन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को किसी सुरक्षित जगह पर विस्थापित किए जाए. ताकि भूस्खलन से होने वाले जान-माल के नुकसान को कम किया जा सके.
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रिपोर्ट पर कोई काम नहीं हुआ: हिमालयी क्षेत्रो में होने वाले भूस्खलन को लेकर वीडिया के वैज्ञानिक लगातार अध्ययन करते रहते है. वाडिया इंस्टीट्यूट (Wadia Institute) के वैज्ञानिकों ने भी समय-समय पर भूस्खलन को लेकर अध्ययन किया है. वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने उत्तराखंड के नैनीताल और मसूरी समेत अन्य पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन को लेकर विस्तृत अध्ययन किया है. इसको लेकर उन्होंने एक रिपोर्ट भी तैयार की थी.
इस रिपोर्ट को वाडिया के वैज्ञानिकों ने उत्तराखंड शासन को सौंपा था, लेकिन अभीतक उस रिपोर्ट के आधार पर कोई काम नहीं किया गया. आपदा के दृष्टिगत से उत्तराखंड संवेदनशील राज्य होने के बावजूद वो रिपोर्ट ठंडे बस्ते में पड़ी है.