देहरादून: उत्तराखंड को ऐसे ही वीरभूमि नहीं कहा जाता है. यहां की भूमि ने न जाने ऐसे कितने जांबाज दिए है जिन्होंने आजादी के पहले से लेकर अबतक भारत माता के लिए अपने प्राण न्योछावर किए हैं. उत्तराखंड सैन्य इतिहास वीरता और पराक्रम के असंख्य किस्से खुद में समेटे हुए है. कारगिल युद्ध की वीर गाथा भी इस वीरभूमि के जिक्र बिना अधूरी है. सूबे के 75 सैनिकों इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे. बावजूद इसके उत्तराखंड में अभीतक सैनिक धाम के नाम पर अभीतक कोई शौर्य स्मारक धरातल पर देखने को नहीं मिला है. ऐसे में सरकारी घोषणाएं फाइलों तक ही सिमट कर रह गई हैं.
उत्तराखंड को लेकर कहा जाता है कि यहां हर घर से एक व्यक्ति सेना में जाकर देश की सेवा करता है. यही कारण है कि उत्तराखंड को सैनिक बाहुल्य राज्य कहा गया है. अदम्य साहस और सर्वोच्च बलिदान के लिए उत्तराखंड का इतिहास देश की आजादी से भी पुराना है. पूर्व सैनिक नंदन सिंह बुटोला बताते हैं कि उत्तराखंड के अदम्य साहस को देखते हुए ब्रिटिश शासन में भी रानीखेत और लैंसडाउन में दो छावनियां स्थापित की थी.
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देश की सुरक्षा और सम्मान के लिए देवभूमि के वीर सपूत हमेशा ही आगे रहे हैं. इन युवाओं में सेना में जाने का क्रेज आज भी बरकरार है. 1999 के कारगिल युद्ध में कुल 526 जवानों शहीद हुए थे, जिसमें से 75 जवान उत्तराखंड के ही थे. इनकी याद में जहा एक ओर सैकड़ों आखें नम होती हैं. वहीं, राज्यवासियों का सीना भी गर्व से चौड़ा हो जाता है. इन जवानों का इतिहास प्रदेश की आने वाली पीढ़ी भी जान सकें, इसको लेकर केंद्र और राज्य सरकार पांचवें धाम के रूप में सैनिक धाम (शौर्य स्मारक) बनाने की घोषणा की थी, जो आजतक धरातल पर नहीं उतरी है.