ऋषिकेश: 'कहां तो तय था चरागा हर एक घर के लिए, कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए' हिंदी के मशहूर कवि दुष्यंत कुमार की यह पंक्तियां शायद चिराग बनाने वाले कुम्हार पर सटीक बैठती है. महंगाई और चाइना बाजार की व्यापकता में हाथ की पारंपरिक कारीगरी अब दम तोड़ने पर मजबूर है. प्लास्टिक के मकड़ जाल में मिट्टी के सामान उलझ से गए हैं. यही कारण है कि कुम्हार अब इस काम से पीछा छुड़ाने की तैयारी में हैं.
अब नहीं दिखाई देते कुम्हार की चाक पर बने दीये. बता दें कि, दीपावली दीयों का त्यौहार है. भगवान राम जब बुराई के उपासक रावण का अंत कर अयोध्या नगरी पहुंचे तो अयोध्या वासियों ने भगवान राम के आने की ख़ुशी में पूरे शहर को दीयों से जगमग किया था. तब से लेकर आज तक यह परंपरा चलती आ रही है, लेकिन उस परंपरा को अब विकास ने पीछे छोड़ दिया है. लोग मिट्टी के पारंपरिक दीयों को छोड़ अब चाइना के लाइटिंग वाले दिए लेना पसंद कर रहे हैं.
मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार ने बताया कि अब इस धंधे में उनकी आखरी पीढ़ी ही काम कर रही है. अब उनके बच्चे इस काम में नहीं आना चाहते हैं. ईटीवी भारत से खास बातचीत में उन्होंने बताया कि पहले के समय में हर कोई अपनी परंपरा को संजोकर चलते थे, पर अब विकास के पथ पर अग्रसर होने की होड़ में लोग परंपराओं से किनारा कर रहे हैं. उनका कहना है कि पहले वह महीनों पहले से दीपावली और करवा चौथ जैसे त्योहारों पर मिट्टी दिए बनाने में जुट जाते थे, लेकिन अब लोग मिट्टी के दीयों के बदले चाइनीज लाइट्स को तवज्जो दे रहे हैं.
कुम्हार पहल सिंह ने बताया कि वह पिछले 30 साल से मिट्टी के बरतन बनाने का काम कर रहे हैं. पहले इस काम में अच्छी आमदनी होता थी और घर का खर्चा भी चलता था, लेकिन अब उन्हें इस काम से दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होगी है. उनका कहना है कि उनके बच्चे अब इस काम से अब दूर हो चुके हैं.