देहरादूनःदेवभूमि उत्तराखंड की संस्कृति अपने आप में अनूठी है. जिसमें ढोल दमाऊ, रणसिंगा और मसकबीन की समृद्ध संस्कृति आज भी मौजूद हैं. जिनके ढोल सागर की थाप और ताल पर देवता भी धरती पर अवतरित होते हैं. गढ़-कुमाऊं की संस्कृति में शायद ढोल दमाऊ समेत अन्य स्थानीय वाद्य यंत्र न हो तो शायद यहां की संस्कृति प्राणरहित हो जाए.
आज स्थिति शायद यही बन रही है कि इन लोक वाद्य यंत्रों को बजाने वाले लोग एक पीढ़ी तक ही सीमित रह गए हैं. हालांकि, कुछेक युवाओं ने इस संस्कृति को अपनाया तो है, लेकिन उनतक ढोल सागर की वो विधा और जानकारी नहीं पहुंच पा रही है, जिसका उत्तराखंड की संस्कृति में एक विशेष महत्व है. क्योंकि, ये युवा भी ढोल दमाऊ को मात्र शादियों में बैंड के विकल्प में ही प्रयोग कर रहे हैं.
उत्तराखंड की गढ़वाल और कुमाऊं की संस्कृति की बात करें तो इसमें लोक वाद्य यंत्र ढोल दमाऊं व रणसिंगा समेत मसकबीन इतना विशेष महत्व रखते हैं कि यहां के व्यक्ति के जीवन से लेकर मरण तक और हर वैदिक संस्कार इनके बिना पूरे नहीं हो पाते हैं, लेकिन अब धीरे-धीरे आधुनिकता की दौड़ में यह मात्र एक पीढ़ी तक ही सीमित रह गई है. क्योंकि, शायद इन लोक वाद्य यंत्रों से जुड़े बाजगी समुदाय को वो सम्मान और रोजगार के आयाम नहीं मिल पाए, जिसकी इन्हें उम्मीद थी.
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देवभूमि में रचा बसा ढोल दमाऊःउत्तराखंड की बात करें तो ढोल दमाऊ यहां की खेती, प्रकृति और संस्कृति से जुड़ा हुआ है. देवताओं की भूम्याल से लेकर चैती आषाढ़ मेले और गीतों में ढोल दमाऊ के बिना गढ़-कुमाऊं की संस्कृति के यह प्रतीक अधूरे हैं. वहीं, कुछ इलाकों में बाजागी समुदाय के युवा अब इसे रोजगार का साधन तो बना रहे हैं, लेकिन ढोल सागर की विधाओं से वो रूबरू नहीं हो पा रहे हैं.
गिनती भर के रह गए ढोल सागर विधा के जानकारःक्योंकि, अब इस समृद्ध विधा के जानकार बहुत कम रह गए हैं. हालांकि, लोक कलाकारों में लोक गायक प्रीतम भरतवाण ने इसे विदेशों तक पहुंचाने की कोशिश की है, लेकिन प्रदेश सरकार की ओर से इस खूबसूरत विधा को बचाने के लिए कोई सार्थक प्रयास नहीं किए गए हैं.