देहरादून: परिवारवाद की राजनीति से छोटा सा पहाड़ी राज्य उत्तराखंड भी अछूता नहीं है. प्रेशर पॉलिटिक्स के जरिये अपनी राजनीतिक विरासत को बचाने और बढ़ाने के लिए कई धुरंधरों ने चुनाव से ठीक पहले दल-बदल को चुना है. इसमें हरक सिंह रावत और यशपाल आर्य जैसे बड़े नाम शामिल हैं. वहीं, कई नेता ऐसे भी हैं, जिन्होंने पार्टी में रहकर ही आलाकमान से अपने चहेतों को टिकट दिलवाकर अपनी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाया. इनमें बीजेपी के वरिष्ठ नेता भुवन चंद्र खंडूड़ी, विजय बहुगुणा, हरभजन सिंह चीमा समेत कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत और दिवंगत इंदिरा हृदयेश का नाम शामिल है.
उत्तरांखड में अपनी प्रेशर पॉलिटिक्स और दबंग अंदाज के लिए एक जाना-माना नाम हरक सिंह रावत का है, जिन्होंने चुनाव से ठीक पहले बीजेपी को अलविदा कहकर कांग्रेस का दामन थाम लिया. हालांकि, हरक सिंह रावत ने इस बार खुद चुनाव न लड़ते हुए अपनी वधू अनुकृति गुसाईं को लैंसडाउन विधानसभा सीट से चुनाव मैदान में उतारा है.
वहीं, घर वापसी में एक नाम यशपाल आर्य का भी है, जिन्होंने चुनाव से ठीक पहले बीजेपी का साथ छोड़ दिया. क्योंकि, पार्टी आलाकमान यशपाल आर्य और उनके बेटे में से किसी एक को ही टिकट देने पर अड़ा था. कांग्रेस में शामिल होने के बाद भी यशपाल आर्य बाजपुर विधानसभा सीट से ही चुनाव मैदान में उतरे हैं. 2017 में बीजेपी के टिकट से यशपाल आर्य ने इस सीट पर जीत हासिल की थी. वहीं, कांग्रेस ने यशपाल आर्य के बेटे संजीव आर्य को भी नैनीताल विधानसभा सीट से टिकट दिया है. संजीव भी 2017 में बीजेपी के टिकट से इस सीट पर जीत हासिल कर चुके हैं.
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बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी की बेटी ऋतु खंडूड़ी बीजेपी के टिकट पर इस बार कोटद्वार विधानसभा सीट से चुनाव लड़ रही है. तो वहीं बीजेपी के वरिष्ठ नेता विजय बहुगुणा के बेटे सौरभ बहुगुणा को दोबारा बीजेपी ने सितारगंज सीट से चुनावी मैदान में उतारा है. उधर, काशीपुर विधानसभा सीट से हरभजन सिंह चीमा ने अपनी राजनीतिक विरासत अपने बेटे त्रिलोक सिंह चीमा को सौंप दी है और वो इस बार बीजेपी प्रत्याशी के तौर पर चुनाव मैदान में हैं.
उधर, कांग्रेस आलाकमान ने वरिष्ठ नेता और पूर्व सीएम हरीश रावत की बेटी अनुपमा रावत पर भरोसा जताते हुए उन्हें हरिद्वार ग्रामीण विधानसभा सीट के चुनाव मैदान में उतारा है. तो वहीं, दिवंगत कांग्रेस नेत्री इंदिरा हृदयेश के बेटे सुमित हृदयेश अपनी मां की राजनीतिक विरासत को संभालते हुए हल्द्वानी सीट से चुनाव मैदान में हैं. कुल मिलाकर कहा जाए तो बीजेपी और कांग्रेस के इन नेताओं की राजनीतिक विरासत इनके बेटे-बेटियों के हाथों में है. लिहाजा, इन प्रत्याशियों के साथ-साथ इनके माता-पिता की प्रतिष्ठा भी इनकी हार जीत पर टिकी है.
लैंसडाउन विधानसभा सीट से हरक सिंह रावत की प्रतिष्ठा दांव पर:बीजेपी का दामन छोड़ 'घर वापसी' करने वाले कांग्रेस नेता हरक सिंह रावत इस बार विधानसभा चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. उनकी मांग पर कांग्रेस ने इस बार लैंसडाउन विधानसभा सीट से उनकी पुत्रवधू अनुकृति गुसाईं को चुनाव मैदान में उतरा है. राज्य गठन से पूर्व परंपरागत रूप से देखा जाए तो इस सीट पर हमेशा से ही बीजेपी का दबदबा रहा है. भारत सिंह रावत जो वर्तमान बीजेपी विधायक महंत दलीप सिंह रावत के पिता थे, वो 1974 से 96 के बीच अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय लैंसडाउन क्षेत्र से पांच बार विधायक रहे और उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी का करीबी माना जाता था.
राज्य गठन के बाद साल 2002 और 2007 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट से हरक सिंह रावत इस सीट से चुनकर विधानसभा पहुंचे थे. वहीं, साल 2012 और 2017 से बीजेपी के दलीप सिंह रावत लगातार इस सीट से विधायक हैं. 2017 में दलीप सिंह रावत ने कांग्रेस के प्रत्याशी तेजपाल सिंह रावत को 6475 वोटों के मार्जिन से हराया था.
ऐसे में एक बार फिर बीजेपी ने 83,354 मतदाताओं वाली लैंसडाउन विधानसभा सीट से दलीप सिंह रावत पर दांव खेला है. वहीं, इस सीट से कांग्रेस के साथ-साथ इस बार हरक सिंह रावत की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी है. क्योंकि कांग्रेस ने उनकी पुत्र वधू अनुकृति पर अपना भरोसा जताया है. लिहाजा, हरक सिंह के लिए यह चुनाव नाक का सवाल बना है.
चुनाव से ठीक पहले पिता-पुत्र ने छोड़ा बीजेपी का साथ:विधानसभा चुनाव से ठीक पहले वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री यशपाल आर्य और उनके बेटे संजीव आर्य बीजेपी का साथ छोड़कर कांग्रेस में घर वापसी कर चुके हैं. जहां एक ओर यशपाल आर्य बाजपुर सीट से चुनाव मैदान में हैं तो संजीव आर्य नैनीताल विधानसभा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. राज्य गठन के बाद हुए परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई बाजपुर विधानसभा सीट 2002 और 2007 के चुनाव में बीजेपी के खाते में आई थी.
वहीं, साल 2012 के चुनाव में कांग्रेस ने इस सीट पर परचम लहराया और यशपाल आर्य यहां से विधायक चुने गए. जबकि, साल 2017 में कांग्रेस का दामन छोड़ चुके यशपाल आर्य ने इस सीट पर बीजेपी के टिकट से चुनाव लड़ा और अपनी निकटम प्रतिद्वंदी कांग्रेस प्रत्याशी सुनीता टम्टा को 12 हजार से ज्यादा वोटों से हराकर विधानसभा पहुंचे.
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ऐसे में अब चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस में घर वापसी कर चुके यशपाल आर्य एक बार फिर कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में इस सीट से चुनाव मैदान में है. वहीं, बीजेपी ने इस सीट से राजेश कुमार को मैदान में उतारा है. जबकि, 2017 के चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में इस सीट से चुनाव लड़ चुकीं सुनीता टम्टा ने आम आदमी पार्टी का दामन थाम लिया है और वह झाड़ू के निशान से चुनाव मैदान में हैं.
वहीं, नैनीताल विधानसभा सीट एक आरक्षित सीट है. यहां से यशपाल आर्य के बेटे सीटिंग विधायक हैं और इस बार वह कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ रहे हैं. नैनीताल सीट की बात करें तो साल 2002 के चुनाव में इस सीट पर क्षेत्रीय दल यूकेडी का कब्जा रहा और नारायण सिंह जंतवाल इस सीट से जीतकर विधानसभा पहुंचे थे. वहीं, 2007 में बीजेपी के खड़क सिंह वोहरा और 2012 के चुनाव में इस सीट पर कांग्रेस की सरिता आर्य ने जीत हासिल की.
जबकि, 2017 के चुनाव में यशपाल आर्य के बेटे संजीव आर्य को बीजेपी ने नैनीताल विधानसभा सीट से चुनाव लड़वाया और उन्होंने इस सीट पर बीजेपी का परचम लहराया. अपनी निकटम प्रतिद्वंदी सरिता आर्य को संजीव ने 7 हजार से ज्यादा वोटों के मार्जिन से हराया था. वहीं, अब संजीव आर्य कांग्रेस के टिकट से चुनाव मैदान में है, तो सरिता आर्य बीजेपी के टिकट से उनके खिलाफ चुनाव लड़ रही हैं. ऐसे में इस सीट से पिता-पुत्र दोनों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है.
कोटद्वार के चक्रव्यूह को क्या तोड़ पाएंगी ऋतु खंडूड़ी?:पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी की बेटी ऋतु खंडूड़ी पर कोटद्वार विधानसभा सीट से इस बार बीजेपी ने दांव खेला है. वहीं, कांग्रेस से वरिष्ठ नेता सुरेंद्र सिंह नेगी उनके खिलाफ चुनाव मैदान में है. राज्य गठन के बाद से कोटद्वार विधानसभा सभा सीट का इतिहास उठाकर देखें तो यहां बीजेपी ने हमेशा ही पैराशूट कैंडिकेट पर अपना दांव खेला है. 2002 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार सुरेंद्र सिंह नेगी के खिलाफ बीजेपी से अनिल बलूनी चुनाव मैदान में उतरे थे. लेकिन उनका नामांकन निरस्त होने के बाद पार्टी को निर्दलीय प्रत्याशी भुवनेश खर्कवाल को समर्थन देना पड़ा और कांग्रेस ने इस चुनाव में जीत हासिल की.
वहीं, 2005 में कोटद्वार विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में दोबारा बीजेपी ने अनिल बलूनी को मैदान में उतारा और उन्हें फिर सुरेंद्र सिंह नेगी से मुंह की खानी पड़ी. जबकि, साल 2007 में कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हुए तत्कालीन ब्लॉक प्रमुख शैलेंद्र सिंह रावत पर बीजेपी ने दांव खेला और उन्होंने इस सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी सुरेंद्र सिंह नेगी को मात दी. वहीं, 2012 के चुनाव में कोटद्वार तब हॉट सीट बन गई जब तत्कालीन मुख्मंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी यहां कांग्रेस के सुरेंद्र सिंह नेगी के खिलाफ मैदान में उतरे और उन्हें हार का सामना करना पड़ा, जिसके कारण बीजेपी सत्ता से बाहर हो गई.
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इसके बाद साल 2017 के चुनाव में कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हुए हरक सिंह रावत पर पार्टी ने इस सीट पर दांव खेला और कांग्रेस प्रत्याशी सुरेंद्र सिंह नेगी के खिलाफ चुनाव लड़वाया. ऐसे में एक बार फिर यह सीट बीजेपी के खाते में आ गई. वहीं, इस बार कांग्रेस में हरक सिंह रावत की घर वापसी के बाद अब बीजेपी ने इस सीट से पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी की बेटी ऋतु खंडूड़ी पर दांव खेला है और कांग्रेस से सुरेंद्र सिंह नेगी ही उनके खिलाफ इस बार चुनाव मैदान में हैं. वहीं, 2012 में अपने पिता की हार का बदला और दोबारा इस सीट पर बीजेपी का परचम लहराना ऋतु खंडूड़ी के लिए एक बड़ी चुनौती है क्योंकि पूर्व सीएम भुवन चंद खंडूड़ी की प्रतिष्ठा भी कोटद्वार विधानसभा सीट से दांव पर लगी है.
पिता की राजनीतिक विरासत आगे बढ़ा रहे सौरभ बहुगुणा:पूर्व सीएम विजय बहुगुणा 2017 के बाद प्रदेश की सक्रिया राजनीति से दूर हैं. वहीं, उनकी राजनीतिक विरासत को अब उनके बेटे सौरभ बहुगुणा आगे बढ़ा रहे हैं. 2017 के विधानसभा चुनाव में सौरभ बहुगुणा सितारगंज सीट से चुनकर विधानसभा पहुंचे थे. वहीं, साल 2012 में विजय बहुगुणा ने इस सीट पर उपचुनाव लड़ा था और जीत हासिल की थी. बाजपुर विधानसभा की बात करें तो राज्य गठन के बाद साल 2002 और 2007 के चुनाव में इस सीट पर बसपा का दबदबा रहा. वहीं, साल 2012 के उपचुनाव में विजय बहुगुणा ने इस सीट पर जीत हासिल की थी. साल 2017 के चुनाव में विजय बहुगुणा के बेटे बीजेपी के टिकट से सितारगंज विधानसभा सीट से चुनाव लड़े और जीते थे. ऐसे में एक बार फिर सौरभ बहुगुणा इस सीट से बीजेपी के टिकट से चुनाव लड़ रहे हैं.
काशीपुर सीट से 'अजेय' चीमा की विरासत को क्या संभाल पाएंगे त्रिलोक? :राज्य गठन के बाद उत्तराखंड का मिनी पंजाब कहे जाने वाले काशीपुर सीट पर 4 चुनावों में बीजेपी उम्मीदवार हरभजन सिंह चीमा विजयी रहे हैं. मतलब बीते 20 सालों से हरभजन सिंह चीमा इस सीट पर अजेय बने हुए हैं. दरअसल, हरभजन सिंह चीमा अकाली दल के नेता रहे हैं और उत्तराखंड में अकाली दल का चेहरा भी रहे हैं. गठबंधन के तहत वो पहले चुनाव में अकाली दल के कोटे से ही बीजेपी में आए थे.
इसके बाद वह बीजेपी के टिकट पर चुनाव जीतते रहे और भाजपाई हो गए. अब हरभजन सिंह चीमा ने अपनी राजनीतिक विरासत अपने बेटे त्रिलोक सिंह चीमा को सौंप दी है. इस बार त्रिलोक सिंह चीमा बीजेपी के टिकट से काशीपुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. ऐसे में इस सीट से 'अजेय' चीमा की राजनीतिक विरासत और प्रतिष्ठा भी इस बार चुनाव में दांव पर लगी है.
हरिद्वार ग्रामीण सीट से पिता-पुत्री की प्रतिष्ठा दांव पर:हरिद्वार ग्रामीण विधानसभा सीट से इस बार कांग्रेस ने हरीश रावत की बेटी अनुपमा रावत को चुनाव मैदान में उतारा है. साल 2017 के चुनाव में मुख्यमंत्री रहते हुए हरीश रावत को बीजेपी के यतीश्वरानंद से इस सीट पर करारी हार मिली थी. इस बार हरीश रावत लालकुआं विधानसभा सीट से चुनाव मैदान में हैं.
इस सीट के इतिहास की बात करें तो राज्य गठन के बाद 2008 में हुई परिसीमन के बाद हरिद्वार ग्रामीण विधानसभा सीट अस्तित्व में आई थी. ऐसे में 2012 के विधानसभा चुनाव में इस सीट पर बीजेपी के यतीश्वरानंद ने जीत हासिल की थी. वहीं, साल 2017 में यतीश्वरानंद ने इस सीट से हरीश रावत को 12 से ज्यादा वोटों के अंतर से हराया था. जिसके बाद यतीश्वरानंद का बीजेपी में कद बढ़ गया और उन्हें धामी कैबिनेट में भी जगह मिली.
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2017 में हरिद्वार ग्रामीण सीट से मिली इस करारी हार की टीस अभी भी हरीश रावत के दिल में है. करीब एक लाख 39 हजार मतदाताओं वाली इस सीट पर जहां फिर से बीजेपी ने यतीश्वरानंद पर ही दांव खेला है. वहीं, इस बार यतीश्वरानंद के खिलाफ कांग्रेस के टिकट से हरीश रावत की बेटी अनुपमा रावत चुनाव मैदान में हैं. हरिद्वार ग्रामीण विधानसभा सीट के सामाजिक समीकरणों की बात करें तो यहां हर जाति-वर्ग के मतदाता अच्छी तादाद में रहते हैं. ऐसे में पिता की हार का बदला लेना अनुपमा के बड़ी चुनौती तो ही है, लेकिन बेटी के साथ-साथ हरीश रावत की प्रतिष्ठा भी इस सीट से दांव पर लगी है.
कांग्रेस के गढ़ हल्द्वानी सीट पर क्या सेंध लगा पाएगी बीजेपी?:हल्द्वानी सीट हमेशा से ही कांग्रेस का गढ़ रही है. बीते चार विधानसभा चुनाव में तीन बार कांग्रेस नेत्री इंदिरा हृदयेश ने इस सीट पर जीत हासिल की थी. वहीं, अब इंदिरा हृदयेश की मृत्यु के बाद उनकी राजनीतिक विरासत बेटे सुमित हृदयेश संभाल रहे हैं. हल्द्वानी विधानसभा सीट कुमाऊं की हॉट सीटों में से एक है, जिस पर कांग्रेस का दबदबा रहा है.
इस सीट के इतिहास की बात करें तो साल 2002 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर इंदिरा हृदयेश यहां विजयी रही थीं. 23 हजार से ज्यादा वोटों के मार्जिन से इंदिरा हृदयेश ने इस चुनाव में बीजेपी के बंशीधर भगत को हराया था. वहीं, 2007 के चुनाव में यह सीट बीजेपी के खाते में आ गई और 39 हजार से ज्यादा वोटों के रिकॉर्ड मार्जिन से इंदिरा हृदयेश को बंशीधर भगत ने इस चुनाव में शिकस्त दी.
जबकि, 2012 और 2017 के चुनाव में इंदिरा हृदयेश ने इस सीट पर जीत हासित की और बीजेपी प्रत्याशी जोगेंद्र पाल सिंह रौतेला को 6500 से अधिक वोटों के मार्जिन से हराया. वहीं, इंदिरा हृदयेश की मृत्यु के बाद उनके बेटे सुमित हृदयेश इस सीट पर अपनी मां की राजनीतिक विरासत को संभाल रहे हैं. कांग्रेस ने बीजेपी प्रत्याशी जोगेंद्र पाल सिंह रौतेला के खिलाफ सुमित हृदयेश को उतारा है. ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या कांग्रेस के गढ़ में इस बार बीजेपी सेंध लगा पाएगी?
कुल मिलाकर देखा जाए तो कई दिग्गजों की राजनीतिक तो कइयों की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा दांव पर लगी है. हरीश रावत से लेकर हरक सिंह रावत ने अपने बेटे-बेटियों की जीत के लिए पूरी जी-जान लगा दी है. हालांकि, इनकी मेहनत कितनी सफल हुई ये तो 10 मार्च को पता चला पाएगा.