उत्तराखंड

uttarakhand

ETV Bharat / state

1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद कितना बदला उत्तराखंड

भारत-चीन सीमा पर इनदिनों तनाव है. भारत की चीन के साथ 3488 किलोमीटर की साझा सीमा है, जो जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश से लगी हुई है. उत्तराखंड से चीन की करीब 350 किलोमीटर लंबी सीमा लगी है, जो उत्तरकाशी, चमोली और पिथौरागढ़ जिलों की सीमा को छूती है.

india
भारत

By

Published : Jun 19, 2020, 12:03 PM IST

देहरादून: भारत-चीन सीमा पर इनदिनों तनाव है. बीते दिनों चीनी सैनिकों के साथ भारतीय सैनिकों की झड़प में 20 सैनिक शहीद हो गए थे. पड़ोसी मुल्क की इस हिमाकत के बाद से देशवासियों में चीन के प्रति भारी आक्रोश है. आखिरकार क्या है ये पूरा मामला और बीते सालों में चीन के साथ हमारे संबंधों में कैसे बदलाव आए हैं. जानिए इस खास रिपोर्ट में.

भारत की चीन के साथ 3488 किलोमीटर की साझा सीमा है, जो जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश से लगी हुई है. उत्तराखंड से चीन की करीब 350 किलोमीटर लंबी सीमा लगी है, जो उत्तरकाशी, चमोली और पिथौरागढ़ जिलों की सीमा को छूती है.

उत्तराखंड से लगी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर चीनी सैनिकों द्वारा घुसपैठ होती रही है. पीपुल्स लिबरेशन आर्मी यानी पीएलए की गतिविधियां उत्तराखंड से लगी सीमा पर जारी रही हैं. बाराहोती जैसे क्षेत्र इसके उदाहरण हैं. हालांकि, भारत-चीन सीमा से लगे गांवों में रहने वाले ग्रामीण और चारवाहे सूचना तंत्र का कार्य करते हैं. क्योंकि, 2017 में डोकलाम के गतिरोध के बाद सेना ने इन गांवों में रह रहे बाशिंदों से सीमा हो रही हर छोटी-मोटी हरकत पर नजर रखने को कहा है. सेना की मदद के लिए इन गांवों से पलायन कर गए लोग भी वापस लौट आए हैं.

सीमा विवाद के कारण उत्तराखंड में बदलाव

अंतरराष्ट्रीय सीमा पर तनाव के बाद राज्य में नई प्रशासनिक इकाइयों की स्थापना हुई है. चीन से सीमा विवाद के चलते सालों के हो रहे भारत-तिब्बत के व्यापारिक रिश्तों पर भी खासा असर पड़ा. यही कारण है कि सीमावर्ती गांवों के ग्रामीणों ने अपनी आजीविका के तौर तरीकों को बदल दिया. 1960 में चीन के कारण तीन सीमावर्ती जिले बनाए गए- उत्तरकाशी, चमोली और पिथौरागढ़.

1960 में एक नई इकाई का गठन किया जिसका बाद में ITBP के साथ विलय हो गया. 90 के दशक में चीनी घुसपैठ के मद्देनजर उत्तराखंड की सीमा पर बसे गांवों के लोगों को खास गुरिल्ला प्रशिक्षण दिया गया. जो तब से लेकर आजतक सेना की आंख-नाक का कार्य कर रहे हैं.

प्रशासनिक परिवर्तन- तीन जिलों का जन्म

तिब्बत पर कब्ज़ा करने के बाद, चीन ने सीमा पर गतिविधियां बढ़ाईं. कुमाऊं मंडल के सुदूरवर्ती सीमा क्षेत्र की संवेदनशीलता को देखते हुये और चीन के साथ युद्ध की संभावना की पृष्ठभूमि में, गढ़वाल, टिहरी और अल्मोड़ा जिले को विभाजित किया गया. इसके बाद साल 1960 में चमोली, उत्तरकाशी और पिथौरागढ़ का जन्म हुआ.

पढ़ें:जम्मू-कश्मीर : दो जगहों पर हुई मुठभेड़ में आठ आतंकवादी ढेर

उत्तरकाशी जिले से नेलांग घाटी का आंतरिक रेखा क्षेत्र लगता है जो भारत-चीन सीमा पर है. वहीं, उत्तर में हिमाचल प्रदेश राज्य और पूर्व में तिब्बत और चमोली जिला है. जबकि, पिथौरागढ़ जिले की अपनी पूरी उत्तरी और पूर्वी सीमाएं अंतरराष्ट्रीय होने के कारण अत्यंत सामरिक महत्व रखती है. तिब्बत से सटा अंतिम जिला होने के नाते, लिपुलेख, कुंगरी, बिंगरी, लिंपियाधुरा, लावेधुरा, बेल्चा और केओ के मार्ग के रूप में इसका सामरिक महत्व है, जो तिब्बत से खुलता है.

चीनी आक्रमण की आशंका के मद्देनजर 24 फरवरी, 1960 को अल्मोड़ा जिले के एक बड़े हिस्से को पिथौरागढ़ जिले के रूप में अलग किया गया था, जिसमें पिथौरागढ़ शहर में मुख्यालय के साथ अत्यधिक सीमावर्ती क्षेत्र शामिल थे. वहीं, 24 फरवरी 1960 को तहसील चमोली को एक नए जिले में अपग्रेड किया गया. चमोली जिले का क्षेत्र 1960 तक कुमाऊं के पौड़ी गढ़वाली जिले का हिस्सा था.

पढ़ें-गलवान घाटी में जवानों की शहादत पर लोगों में आक्रोश, चीनी सामान का किया बहिष्कार


चीन की आर्थिकी पर भी पड़ा असर

तिब्बत पर चीन के कब्जे से पहले नवगठित तीनों जिलों चमोली, पिथौरागढ़ और उत्तरकाशी में तिब्बत के साथ व्यापार हुआ करता था. जो युद्ध के बाद बंद हो गया. ऐसे में सीमावर्ती गांवों में बसे लोगों ने अपना रोजगार खो दिया. हालांकि, सरकार ने इन इलाकों में बसागत हुई भोटिया, थारू समेत अन्य पांच जनजातियों को एसटी का दर्जा दिया. जिसके बाद इन जनजातियों के युवा शिक्षा ग्रहण कर भारतीय प्रशासनिक सेवाओं तक पहुंच गए हैं.

1962 के बाद ग्रामीणों का किया विस्थापन

भारत सरकार ने उत्तरकाशी की नेलांग और जंडुग घाटी को खाली करवाकर वहां से बाशिंदों को बागोरी और हर्षिल के डुंडा में विस्थापित किया. बागोरी के पूर्व ब्लॉक प्रमुख भगवान सिंह राणा बताते हैं कि युद्ध के समय वह 16 साल के थे. उन्हें याद है कि सरकार ने रातोंरात गांव को खाली करने को कहा था. ऐसे में उनका परिवार बागारी आकर बस गया.

भगवान सिंह राणा का कहना है कि अब हर साल वह दो जून को अपने स्थानीय देवता को पूजन अपने पैतृक गांव जाते हैं. क्योंकि, सरकार ने नेलांग वैली में चारवाहों को अनुमति दी है.

ABOUT THE AUTHOR

...view details