देहरादून:उत्तराखंड में हालात अब साल 2000 की तुलना में काफी बदल चुके हैं. पिछले 19 सालों में आम लोगों की मूलभूत सुविधाओं का विकास हुआ है तो सरकारों तक आमजन की पहुंच भी आसान हुई है. बावजूद इसके उत्तराखंड टूटी उम्मीदों के दर्द से कराह रहा है. टीस आज भी शरीर के उसी हिस्से को लेकर है, जिसके लिए अलग राज्य की दवा बनाई गई. उत्तराखंड के पिछले 19 साल के आंकड़ें क्या कहते हैं, इस पर एक नजर डालते हैं...
टूटी उम्मीदों के दर्द से कराह रही देवभूमि बात सन् 2000 की है, जब हिमालय से सटे छोटे से हिस्से में उम्मीदें आसमान छू रही थीं. नए राज्य उत्तरांचल में लोग पहाड़ों को कुछ अलग नजर से देखने लगे थे लेकिन आबाद पहाड़ों में खुशहाली की तस्वीर अभी रमी भी नहीं थी कि लहरों ने इन्हें आंखों से ओझल कर दिया. सपने टूटने का आभास सत्ता की नूरा कुश्ती से स्थापना के पहले साल में ही हो चुका था. 13 जिलों में 9 पहाड़ी जिले वाला राज्य परेशानियों से भरा पड़ा था. स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, पानी, सड़क, जैसी मुलभूत सुविधाओं समेत रोजगार और नए राज्य में मजबूत आर्थिक हालात पैदा करना बड़ी चुनौती थी लेकिन जवाबदेही तय नहीं होने से सबकुछ बिगड़ता चला गया.
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ये बात सही है कि प्रदेश में 19 सालों के दौरान विकास के काम हुए लेकिन पहाड़ी जिलों पर विकास की किरण बेहद धीमी रही यानी पहाड़ के विकास के लिए बनाए गए अलग राज्य में भी पहाड़ विकास के लिए बेगाना ही रहा. बहरहाल, आंकड़ों के रूप में राज्य का 19 सालों का सफर देखें तो कई मामलों में राज्य के हालात सुधरे तो कुछ आंकड़े राज्य के लिए पीड़ादायक रहे.
आंकड़ों पर एक नजर
- उत्तराखंड राज्य स्थापना के दौरान प्रदेश को 4500 करोड़ का कर्ज विरासत में मिला, जो 19 सालों के बढ़कर करीब 45000 करोड़ हो चुका है.
- राज्य स्थापना के समय प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय करीब ₹14 हजार थी जो कि अब बढ़कर ₹2 लाख के पास पहुंच चुकी है.
- सकल घरेलू उत्पाद करीब 13 हजार करोड़ रुपये था, जो अब 14 गुना बढ़कर ₹2 लाख करोड़ के पास पहुंच गया है.
- उत्तराखंड की साक्षरता दर जो स्थापना के समय करीब 71% थी, वह बढ़कर 79% पहुंच गई है.
- उत्तराखंड की विकास दर फिलहाल 6.8% है जो कि राज्य स्थापना के समय इससे बेहतर स्थिति में थी.
- उत्तराखंड के राज्य स्थापना के समय करीब 2 लाख 70 हजार बेरोजगार पंजीकृत थे, जिनकी संख्या अब कई गुना बढ़कर करीब 9 लाख तक हो गई है.
- उत्तराखंड में लिंगानुपात पर भी स्थिति खराब हुई है. राज्य स्थापना के समय लिंगानुपात 908 प्रति हजार थी जो अब घटकर करीब 890 हो गया है.
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उत्तराखंड के लिए बड़ी परेशानी फिलहाल यह है कि राज्य लगातार कर्जे में डूबता जा रहा है और बजट का 80% पैसा नॉन प्लान यानी तनख्वाह पेंशन और कर्ज का ब्याज देने में ही खर्च हो रहा है. साफ है कि नई योजनाओं और रिसोर्सेज तैयार करने के लिए सरकार के पास पर्याप्त बजट ही नहीं रहता है. ऐसी स्थिति में मौजूदा हालातों के लिए बीजेपी सरकार पिछली सरकारों की खराब नीतियों को जिम्मेदार मानती है. हालांकि, बीजेपी नेता पिछले सालों में काफी विकास होने का भी दावा करते हुए दिखाई देते हैं.
उत्तराखंड में विकास मैदानी जिलों से लेकर पहाड़ी जिलों तक हुआ है, लेकिन पहाड़ी जिलों में मैदानों की अपेक्षा विकास को लेकर असमानता बेहद ज्यादा रही है या यूं कहें कि पहाड़ी जिलों में बेहद कम विकास पहुंचा. जिसके चलते अलग राज्य की स्थापना का उद्देश्य ही खटाई में पड़ गया. कांग्रेस इस मामले में यह बात मानती है कि उम्मीद के मुताबिक विकास नहीं हो पाया लेकिन पार्टी नेता इस मामले पर खुल कर अपनी सरकारों की गलती स्वीकारते नजर नहीं आते. इसके लिए नेता भ्रष्टाचार और गलत नीतियों को जिम्मेदार जरूर समझ रहे हैं. जिससे साफ है कि प्रदेश में सरकारों की तरफ से की गई गलतियां पहाड़ को भुगतनी पड़ रही है.