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पर्यावरण को लेकर 'चीड़' से चिंतित सरकार, केंद्र से मांगी कटान की इजाजत

पेड़ पर्यावरण के लिए बेहद जरूरी हैं. ये तो आपने सुना ही होगा. लेकिन उत्तराखंड में एक खास प्रजाति का पेड़ वन पर्यावरण के लिये खतरा बन गया है.

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चीड़ बना पर्यावरण के लिए खतरा

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Published : Feb 16, 2021, 1:29 PM IST

Updated : Feb 16, 2021, 6:52 PM IST

देहरादून:आपको सुनने में थोड़ा अजीब लगेगा लेकिन यह सच है कि उत्तराखंड में कुछ वन क्षेत्र पर्यावरण के लिए ही खतरा बन गए हैं. दरअसल जैव विविधता का पर्यावरण में एक खास स्थान है. इसी जैव विविधता को उत्तराखंड में पहाड़ों पर फैला एक खास वन क्षेत्र नुकसान पहुंचा रहा है. हालत यह है कि अब सरकार भी केंद्र से इन वन क्षेत्रों को काटने की इजाजत मांगने में जुट गयी है. क्या है यह पूरा मामला और किस वृक्ष ने उत्तराखंड के पहाड़ों में बढ़ा दी है मुसीबतें. पढ़िए स्पेशल रिपोर्ट.

पर्यावरण को लेकर 'चीड़' से चिंतित सरकार.

पर्यावरण को संरक्षित रखने में उत्तराखंड ने बेहद अहम भूमिका निभाई है. राज्य में 70% क्षेत्र वनों से आच्छादित है. बावजूद इसके राज्य में तेजी से विकास योजनाओं के लिए वृक्षों का कटान भी बड़ी मात्रा में किया गया है. राज्य में ऐसे कई नियम हैं जिनके कारण वृक्षों को काटना प्रतिबंधित है. इसके लिए बेहद सख्त नियम बनाए गए हैं. वैसे तो वन क्षेत्र को इन नियमों का लाभ हुआ है, लेकिन इसी नियम के चलते प्रदेश में एक खास तरह की परेशानी भी खड़ी हो गई है. यह परेशानी प्रदेश में तेजी से फैल रहे चीड़ के वनों को लेकर है. ये पेड़ राज्य में जैव विविधता समेत कई तरह से परेशानियों की वजह बने हुए हैं. सबसे पहले जानिए की प्रदेश में वृक्षों की कौन सी प्रजाति कितने प्रतिशत क्षेत्र में फैली हुई है.

पर्यावरण को लेकर 'चीड़' से चिंतित सरकार.

कौन से कितने वन ?

  • चीड़ के वृक्ष राज्य में करीब 16 प्रतिशत वन क्षेत्र को कब्जे में लिए हुए हैं.
  • दूसरे नंबर पर बांज है, जो फिलहाल करीब 15% वन क्षेत्र में मौजूद है.
  • साल के वृक्ष 12 प्रतिशत क्षेत्र में हैं.
  • फर के वृक्ष 4 प्रतिशत क्षेत्र में हैं
  • यूकेलिप्टस, सागौन और देवदार के पेड़ सिर्फ 1 प्रतिशत से भी कम क्षेत्र में हैं.
  • अलग अलग प्रजाति के वृक्ष 24 प्रतिशत क्षेत्र में फैले हुए हैं.
    चीड़ बना पर्यावरण के लिए खतरा.

ये आंकड़े यह बताने के लिए काफी हैं कि प्रदेश में पहाड़ी क्षेत्रों में चीड़ के जंगल बेहद तेजी से फैले हैं. इसको नियंत्रित करने के लिए सरकार प्रयास कर रही है. त्रिवेंद्र सरकार की तरफ से कोशिश यह है कि चीड़ के जंगलों के कटान की अनुमति केंद्र से ली जाए और व्यापारिक उपयोग पर भी चीड़ के कटान को खोला जाए.

केंद्र से मांगी कटान की इजाजत.

मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत कहते हैं कि सरकार ने FRI. से रिसर्च करवाई है और इस दौरान करीब 1,000 मीटर से ऊपर लगने वाले चीड़ के जंगलों से जैव विविधता को बेहद नुकसान होने की बात रिसर्च में सामने आई है. इसीलिए अब सरकार भारत सरकार से चीड़ के जंगलों को काटे जाने को लेकर अनुमति लेने के प्रयास में जुटी हुई है. ऐसा क्या है कि सरकार बेहद गंभीरता के साथ चीड़ के जंगलों को काटने में तुली हुई है. यह जानने के लिए चीड़ के उपयोगों और नुकसान को भी जानना बेहद जरूरी है.

चीड़ के फायदे और नुकसान.

चीड़ के फायदे

  • चीड़ को फायदे के रूप में देखा जाए तो इसके पत्ते बेहद ज्वलनशील होते हैं. इसलिए इनका विभिन्न कार्यों के लिए उपयोग किया जा सकता है.
  • चीड़ की लकड़ी का भी व्यवसायिक कार्यों में उपयोग किया जाता है और इस लिहाज से इसके अलग ही फायदे हैं.
  • चीड़ के पेड़ों से लीसा निकलता है और यह भी व्यवसायिक रूप से इस पेड़ का फायदा है.

चीड़ के नुकसान

  • जहां तक चीड़ से होने वाले नुकसान की बात करें तो इसका नुकसान बेहद ज्यादा है. इसीलिए सरकार इन्हें अब नियंत्रित करने के लिए प्रयास में जुट गई है.
  • उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में चीड़ जंगलों में आग की वजह बन रहा है. इसकी पत्तियां यानी पीरूल के कारण जंगलों में तेजी से आग फैलती है. पिछले कुछ समय में उत्तराखंड के जंगलों में आग की चीड़ का वृक्ष बड़ी वजह बना है.
  • चीड़ का सबसे ज्यादा नुकसान जैव विविधता को लेकर है. रिसर्च में पाया गया है कि चीड़ के वृक्षों के आसपास दूसरी प्रजाति के वृक्ष नहीं पनप पाते.
  • चीड़ के वृक्षों के प्रसार से बांज के जंगल खत्म हो रहे हैं जो कि जल संरक्षण और जमीन में नमी के लिए बेहद जरूरी होते हैं.

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पर्यावरणविद् एसपी सती कहते हैं कि यूं तो चीड़ पर्यावरण के लिए नुकसानदायक नहीं है, लेकिन जिस तरह चीड़ अपना प्रसार कर रहा है उससे बाकी प्रजातियों पर खतरा बन गया है. चीड़ की खास बात यह है कि यह वनों में आग की घटनाओं को बढ़ाता तो है लेकिन वनाग्नि के बाद ये वृक्ष खुद बेहद तेजी से फैलता है. यही कारण है कि वनों की विभिन्न प्रजातियां वनाग्नि में खत्म हो जाती हैं और चीड़ उनकी जगह ले लेता है.

चीड़ के प्रसार के लिए वन अधिनियम में वो नियम बेहद मददगार रहे जिसमें 1,000 मीटर से अधिक ऊंचाई के वृक्षों को काटने पर रोक लगाई गई. दरअसल 1880 के दशक में टिहरी रियासत के दौरान विल्सन नाम के ब्रिटिशर्स ने चीड़ के व्यवसायिक उपयोग को लेकर टिहरी के राजा को 6,000 रुपये प्रति वर्ष भुगतान का अनुबंध किया. इसके बाद रेलवे प्रसार के लिए चीड़ का व्यवसायिक उपयोग किया जाने लगा. इससे टिहरी क्षेत्र में चीड़ को नियंत्रित करने में मदद मिली. लेकिन बाद में वृक्षों के कटान पर लगी रोक से चीड़ बेहद तेजी से प्रसारित हुआ.

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हालांकि राज्य में चीड़ जिस तरह परेशानी बना उसके बाद इसको लेकर राज्य सरकार ने चीड़ की पत्तियों यानी पीरूल से बिजली उत्पादन प्लांट चलाने और वन पंचायतों को इसके जरिए रोजगार देने को लेकर विभिन्न योजनाएं चलाईं. हालांकि न तो इन योजनाओं का लोगों को कुछ खास फायदा मिला और ना ही चीड़ को इससे नियंत्रित किया जा सका. हालांकि वन पंचायत सलाहकार समिति के अध्यक्ष वीरेंद्र बिष्ट कहते हैं कि वन पंचायतों और स्वयं सेवी संस्थाओं को चीड़ से रोजगार देने के लिए सरकार की तरफ से प्रयास किए गए हैं. चीड़ को नियंत्रित किए जाने का भी प्रयास किया जा रहा है.

Last Updated : Feb 16, 2021, 6:52 PM IST

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