देहरादून:हरीश रावत उस राजनीतिज्ञ का नाम है जो जब कुछ भी नहीं करते तो भी चर्चा में रहना जानते हैं. इन दिनों कांग्रेस में नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश अध्यक्ष को लेकर खींचतान चल रही है. दिल्ली दरबार में छोटे-बड़े नेता रोज हाजिरी लगा रहे हैं. ऐसे में हरदा ने अलग ही तराना छेड़ दिया है.
हरदा ने अपनी साथ घटी दो घटनाओं को शीर्षक दिया है 'संकल्प की डोर'. हरदा लिखते हैं- 'मैंने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के रूप में 1 फरवरी 2014, शनिवार को शाम 5 बजे शपथ ली. पंडित जी द्वारा शपथ हेतु निर्धारित समय में, मैं शपथ नहीं ले पाया. दिन भर राजनैतिक घटनाक्रम ऐसा उलझा कि सायंकाल ही शपथ हो पाई.'
हरदा आगे लिखते हैं- 'मुख्यमंत्री के रूप में जीवन का क्रम बहुत व्यवस्थित ढंग से चल रहा था. चुनौतियों का मुझे अनुमान था और मैं उनका अपने तरीके से निष्पादन भी कर रहा था. दिनांक 6 फरवरी 2014 को हमने वार्षिक बजट प्रस्तुत किया. हमारा बजट अपने आप में, एक आपदाग्रस्त राज्य के लिए स्फूर्ति पैदा करने वाला बजट था. मैं आपदा के बाद चीजों को ढर्रे पर आता देखकर बहुत खुश था. राज्य की व्यवस्था विशेषत: अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट रही थी. इसी दौरान मुझे विधानसभा का चुनाव लड़ना भी आवश्यक था. मैं डोईवाला से चुनाव लड़ना चाहता था. सोमेश्वर के लिए भी हम उम्मीदार का चयन कर चुके थे.'
यहां से हरीश रावत की कहानी में रोचकता बढ़ जाती है. वो लिखते हैं- 'धारचूला के विधायक हरीश धामी जी ने गैरसैंण में हुए विधानसभा सत्र के दौरान विधानसभा में अपनी सदस्यता से त्यागपत्र की घोषणा कर दी. स्पीकर महोदय ने उसको स्वीकार कर लिया. जानकारी होने पर मैं हड़बड़ाहट में विधानसभा पहुंचा. तब तक मेरे साथियों ने आपसी विमर्श से सब कुछ तय कर लिया था. मेरे सामने धारचूला से चुनाव लड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया था.'