देहरादून: उत्तराखंड में बदले मौसम के मिजाज ने भले ही प्रदेश के वनों में धधकती अग्नि (forest fire) को शांत कर दिया हो, लेकिन यह खतरा प्रदेश के लिए टला नहीं है. इस बीच वन महकमा (Forest department) आग पर काबू पाने के लिए नए तरीकों को तो खोज रहा है, लेकिन सालों साल से चले आ रहे पारंपरिक तरीकों को महकमा भूल सा गया है. स्थिति यह है कि पिछले लंबे समय से फायर लाइन पर विभाग ने कुछ खास कदम नहीं बढ़ाए हैं. नतीजतन जंगलों में आग की घटनाएं शुरू होते ही वन विभाग के अधिकारी बेबस नजर आने लगते हैं.
दुनिया भर में जंगलों की आग को काबू में रखने के लिए भले ही कई तकनीकों का उपयोग किया जा रहा हो, लेकिन एक पारंपरिक तरीका (traditional methods of extinguishing forest fire) जिसे आज भी तमाम हाईटेक तकनीकों के आने के बावजूद दुनिया के विकसित देश भी अपनाते आये हैं, वो है फायर लाइन तकनीक का इस्तेमाल. हालांकि उत्तराखंड के जंगलों में भी इस तरीके को अपनाया जा रहा है, लेकिन पिछले कई सालों से जिन फायर लाइन को तैयार किया गया है, बस उन्हीं के भरोसे वन विभाग दिखाई देता है. इस पर भी वन विभाग तब सक्रिय होता है, जब जंगलों में आग की घटनाएं शुरू हो जाती हैं और आनन-फानन में फायर लाइन को साफ करने का काम विभाग के कर्मचारी करते हैं.
आंकड़ों के जरिए जानिए फायर लाइन की स्थिति:राज्य में फायर लाइन (fire line) को वर्गीकृत किया गया है. जिसमें 100, 50 और 30 फीट के साथ ही सड़कों के किनारे भी फायर लाइन तैयार होती हैं. राज्य में फायर लाइन की स्थिति देखें तो 2876.49 किलोमीटर क्षेत्र में 100 फीट की फायर लाइन बनी हुई है. 50 फीट की फायर लाइन की लंबाई 2520 किलोमीटर है, जबकि 30 फीट की फायर लाइन 1333.43 किलोमीटर पर फैली हुई है. क्षेत्र के लिहाज से देखें तो कुमाऊं जोन में करीब 3000 किलोमीटर क्षेत्र में फायर लाइन है. गढ़वाल जोन में करीब 2500 किलोमीटर फायर लाइन है. उधर वन्यजीव क्षेत्र में 1100 किलोमीटर फायर लाइन है.