देहरादून/चमोली: चमोली के रैणी गांव, तपोवन और विष्णुप्रयाग इलाके में ग्लेशियर फटने के बाद तबाही मच गई. एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, आईटीबीपी, सेना और स्थानीय पुलिस जीन-जान से रेस्क्यू ऑपरेशन में लगे हैं. चौबीसों घंटे राहत और बचाव कार्य जारी है. इस आपदा के लिए कई तरह के शक और सवाल उठाए जा रहे हैं. पर्यावरणविद ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट को इसके लिए दोषी ठहरा रहे हैं. कोई कुदरत का कहर बता रहा है. इसी बीच कुछ लोगों ने नंदा देवी पर्वत श्रृंखला पर 56 साल पहले गुम हुई प्लूटोनियम डिवाइस को इस आपदा के लिए जिम्मेदार बताना शुरू कर दिया. क्या था नंदा देवी मिशन आइए हम आपको बताते हैं.
शीतयुद्ध के दौर में हुआ मिशन नंदा देवी
समुद्र तल से 7,800 मीटर से ज्यादा ऊंचाई पर नंदा देवी पर्वत स्थित है. यह भारत की दूसरी सबसे ऊंची चोटी है. 1965 से इन चोटियों में एक राज दफन है, जो इंसान के लिए विनाशकारी आशंका को बार-बार जिंदा करता है. वो शीतयुद्ध का दौर था. उस वक्त दुनिया दो ध्रुवों में बंटी हुई थी. भारत और अमेरिका ने 1965 में मिशन नंदा देवी के रूप में एक खुफिया अभियान चलाया था. चीन की परमाणु गतिविधियों पर नजर रखने के लिए ये सीक्रेट मिशन शुरू हुआ था. चीन पर निगरानी के लिए अमेरिका ने भारत से मदद मांगी. कंचनजंगा पर खुफिया डिवाइस लगाने का प्लान बनाया गया.
200 लोगों की टीम सीक्रेट मिशन में शामिल
1964 में चीन ने शिनजियान प्रांत में न्यूक्लियर टेस्ट किया था. इसके बाद 1965 में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने हिमालय की चोटियों से चीन की परमाणु गतिविधियों पर निगरानी का प्लान बनाया. इसके लिए भारतीय खुफिया विभाग से मदद लेकर नंदा देवी पर्वत पर खुफिया यंत्र लगाने की कोशिश की गई. पहाड़ पर 56 किलोग्राम के यंत्र स्थापित किए जाने थे. इन डिवाइस में 8 से 10 फीट ऊंचा एंटीना, दो ट्रांस रिसीवर सेट और परमाणु सहायक शक्ति जनरेटर (SNAP सिस्टम) शामिल थे. जनरेटर के न्यूक्लियर फ्यूल में प्लूटोनियम के साथ कैप्सूल भी थे, जिनको एक स्पेशल कंटेनर में रखा गया था. न्यूक्लियर फ्यूल जनरेटर हिरोशिमा पर गिराए गए बम के आधे वजन का था. टीम के शेरपाओं ने इसे गुरुरिंगपोचे नाम दिया था. 200 लोगों की टीम इस सीक्रेट मिशन से जुड़ी हुई थी.
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अक्टूबर 1965 में अधूरा छोड़ना पड़ा मिशन
अक्टूबर 1965 में टीम नंदा देवी पर्वत के करीब 24 हजार फीट ऊंचाई पर स्थित कैंप-4 पहुंच गई. इसी दौरान अचानक मौसम काफी खराब हो गया. टीम लीडर मनमोहन सिंह कोहली के लिए यह करो या मरो का सवाल था. उन्हें अपनी टीम या खुफिया डिवाइस में से किसी एक को चुनना था. ऐसे में उन्होंने अपनी टीम के मेंबर्स को तवज्जो दी. आखिरकार टीम को मिशन अधूरा छोड़कर वापस लौटना पड़ा. परमाणु सहायक शक्ति जनरेटर मशीन और प्लूटोनियम कैप्सूल को वहीं छोड़ना पड़ा.
1966 में फिर मिली नाकामी