देहरादूनःउत्तराखंड में कई योजनाओं और केंद्रीय संस्थाओं को जमीन ना मिलने के कारण इन परियोजनाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है. लेकिन, आपको ये जानकर हैरानी होगी कि देहरादून में ही करीब 5500 बीघा सरकारी जमीन अवैध रूप से कब्जा (encroachment on 5500 bigha government land) की जा रही है. हैरानी की बात ये है कि प्रशासन इन कब्जों पर आंखें मूंद कर बैठा रहा. ये कहानी साल 1960 में लाए गए सीलिंग एक्ट (ceiling act) से शुरू होती है. इस पर यूपी सरकार ने साल 1975 में एक विशेष आदेश जारी किया. हालांकि, ये आदेश सरकारी फाइलों में दबकर रह गया है.
देहरादून में आज जमीनों के दाम आसमान छू रहे हैं. शायद यही वजह है कि भू माफियाओं की नजर हरपल ऐसी बेशकीमती जमीनों पर रहती है, जहां कानूनी दांव पेंच के जरिए वो खुद के वारे-न्यारे कर सकें. आपको जानकर हैरानी होगी कि दून में आपराधिक मामलों में सबसे ज्यादा शिकायतें लैंड फ्रॉड को लेकर ही हैं. लेकिन आज हम बात उस खेल की करेंगे जिसकी शुरुआत 47 साल पहले ही कर दी गई थी. जी हां, 1960 में आए सीलिंग एक्ट पर 1975 में उत्तर प्रदेश सरकार ने एक ऐसा आदेश किया जो जमीनों के खेल को पूरी तरह से प्रतिबंधित करने वाला था.
चाय बागान की भूमि, सरकार में निहितः दरअसल यूपी सरकार ने 10 अक्टूबर 1975 के बाद चाय बागान से जुड़ी भूमि का लैंड यूज बदलते ही इस भूमि के सरकार में निहित होने का आदेश जारी किया. खास बात यह है कि 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने भी यूपी के 10 अक्टूबर 1975 की समय सीमा से जुड़े फैसले को आदेश में कहा. इस तरह यह तय हो गया कि 1975 के बाद चाय बागान की कोई भी भूमि चाय बागान के अलावा किसी भी रूप में प्रयोग होने पर वह स्वतः ही सरकार में निहित हो जाएगी. मजे की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बावजूद भी इन जमीनों को खुर्द बुर्द करने का खेल शुरू हो गया. इसमें तेजी तब आई जब उत्तराखंड के उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद देहरादून को अस्थाई राजधानी के रूप में घोषित कर दिया गया.
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2005 में तत्कालीन डीएम ने किया था खुलासाः चौंकाने वाली बात यह है कि यह सब सरकार और शासन के साथ प्रशासन के अधिकारियों के सामने होता रहा. ऐसा नहीं कि इसकी जानकारी अधिकारियों को नहीं थी. जानकारी के मुताबिक, 2005 में देहरादून की जिलाधिकारी रहीं मनीषा पंवार ने इस पूरे खेल को तत्कालीन गढ़वाल कमिश्नर को अपनी रिपोर्ट के जरिए बताया. लेकिन इसका कोई असर सरकारी मशीनरी पर नहीं पड़ा और जमीनें खुर्दबुर्द होती रही. यह सब तब हो रहा था जब 1996 में ही तत्कालीन एडीएम जितेंद्र कुमार की तरफ से चाय बागान की जमीन को चिन्हित करते हुए इनके खसरा नंबर तक रिकॉर्ड में ले लिए गए थे.
सीलिंग एक्ट और चाय बागान मामलाः सीलिंग एक्ट 1960 में आया था. इसके अनुसार एक व्यक्ति के पास साढ़े 12 एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं रह सकती थी. जमीदारी प्रथा के उन्मूलन के बाद इस एक्ट को लागू किया गया. इसमें कई लोगों ने अपनी जमीनों को सीलिंग से बचाने के लिए चाय बागान में छूट का प्रावधान होने के चलते अपनी जमीनों पर चाय बागान लगाए. लेकिन नियम यह भी था कि चाय बागान को हटाकर कोई भी गतिविधि यदि इस जमीन पर होती है तो यह स्वयं ही सरकार में निहित हो जाएगी. देहरादून में इन जमीनों को चिन्हित कर लिया गया था, लेकिन राज्य स्थापना के बाद जमीनों की कीमतों के बढ़ने के चलते इस पर खेल शुरू हो गया.
HC में PIL देने से हुआ खुलासाः आज स्थिति ये है कि इनमें कई जमीनों पर कॉलोनियां बन चुकी हैं. लोगों का आरोप है कि जमीनों पर माफिया राज चल रहा है. देहरादून में जमीनों पर कब्जे का खुला खेल चलता रहा और अधिकारियों पर राजनीतिक दबाव या लापरवाही ने इस खेल को पूरा संरक्षण दिया. चौंकाने वाली बात तो यह है कि सत्ताधारी भाजपा पर आरोप है कि उसने अपने प्रदेश व्यापी मुख्यालय के लिए करीब 3 करोड़ की भूमि का जो सौदा किया है वह चाय बागान की ही है.