देहरादन: उत्तराखंड में 10 साल पुराने कमर्शियल डीजल वाहनों पर प्रतिबंध की कवायद तो शुरू की जा रही है, लेकिन इसके पीछे तमाम ऐसे पहलू हैं जो हर किसी के लिए जानने बेहद जरूरी हैं. दरअसल, पर्यावरण संरक्षण के नाम पर उत्तराखंड परिवहन विभाग कमर्शियल वाहनों पर डंडा चलाने की रणनीति तो बना रहा है, लेकिन इस फैसले से कितना और कहां-कहां असर पड़ेगा, यह जानना जरूरी है.
करीब 29000 वाहनों के थम जाएंगे पहिए
पूरे उत्तराखंड में 63 ऐसी टैक्सी-मैक्सी यूनियन हैं, जिनके माध्यम से उत्तराखंड का मध्यम वर्ग का व्यक्ति सफर करता है और प्रदेश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. इसके अलावा छोटे-छोटे पहाड़ी इलाकों से मुख्य मार्ग तक आने वाली कई और भी यूनियन हैं, जो चिह्नित नहीं हैं. जानकारी के अनुसार केवल जनवरी 2019 तक के रजिस्ट्रेशन के आधार पर प्रदेश में कमर्शियल वाहनों की संख्या 39,668 है. जोकि हर साल टैक्स के रूप में सरकार को करोड़ों का राजस्व देते हैं. हर एक वाहन से सीधे तौर पर 5 लोग (वाहन स्वामी, ड्राइवर, मैकेनिक, आरटीओ और बैंक) रोजगार के लिए आश्रित हैं, तो वहीं अप्रत्यक्ष रूप से हजारों लोग रोजाना इन वाहनों से सफर करते हैं.
करोड़ों के राजस्व पर खतरा
सरकार को कमर्शियल वाहनों से मिलने वाले राजस्व पर अगर नजर डाली जाए तो प्रत्येक वाहन हर महीने पैसेंजर टैक्स, फिटनेस टैक्स, स्पीड गवर्नेंस टैक्स, रजिस्ट्रेशन टैक्स (शुरुआत में) सहित तमाम तरह के टैक्स देकर सरकार की जेब भरता है. केवल देहरादून रिस्पना पुल से संचालित होने वाली टैक्सी-मैक्सी यूनियन के 253 वाहन सभी प्रकार के टैक्स मिलाकर हर महीने सरकार को तकरीबन 63 लाख से ज्यादा टैक्स जमा करते हैं. यही नहीं इस तरह के राज्य में 60 से ज्यादा और यूनियन हैं. सरकार को करोड़ों का राजस्व केवल पहाड़ों की लाइफ लाइन कहे जाने वाले 24 घंटो दौड़ते यह वाहन देते हैंं. अब सवाल आता है कि अगर सरकार द्वारा 10 साल पुराने डीजल कमर्शियल वाहनों को प्रतिबंधित किया जाता है तो इसका क्या असर पड़ेगा ?