देहरादून:देशभर में भारतीय जनता पार्टी अपने परिवार को बड़ा करने में जुटी हुई है. कांग्रेस से लेकर तमाम दूसरे दलों के नेता भाजपा में शामिल होकर पार्टी का हिस्सा भी बन रहे हैं. अपना कुनबा बढ़ाने में जुटी बीजेपी दो बड़ी चुनौतियों से गुजर रही है. पहली चुनौती पार्टी में आए तमाम नेताओं को पार्टी की विचारधारा से जोड़ने की है, तो दूसरी बागियों के आने से अपनों को रूठने से बचाने की. भाजपा में कुनबा बढ़ाने के क्या हो रहे साइडइफेक्ट ? जानिए...
भारतीय जनता पार्टी का संगठन के तौर पर अपना एक संविधान है और विचारधारा भी. लेकिन इस सोच को आज कई विचारधाराएं घेरे हुए हैं. दरअसल, भाजपा में कांग्रेस से लेकर यूकेडी, आम आदमी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता शामिल हो रहे हैं. जाहिर है कि यह नेता अपनी एक विचारधारा लेकर भाजपा में शामिल होते हैं. ऐसे में पार्टी के लिए एक बड़ी चुनौती इस विचारधारा को पीछे छोड़ते हुए भाजपा की सोच से नेताओं को साथ लेकर चलना है. हालांकि, भाजपा के लिए परेशानी इतनी भर नहीं है, बल्कि पार्टी के सामने उन पुराने वफादार नेताओं और कार्यकर्ताओं को संतुष्ट करना सबसे मुश्किल काम है, जो पार्टी को आज इस मुकाम तक लाए हैं.
साल 2017 में दलबदल विरोध जारी: साल 2017 में कांग्रेस के कई बड़े और दिग्गज नेताओं ने भाजपा का दामन थामा था. इसके बाद से अब 5 साल तक भी यह नेता भाजपा में खुद को एडजस्ट नहीं कर पाए. हरक सिंह रावत का गाहे-बगाहे विरोध करना. सतपाल महाराज का सरकार से नाराज होना और सुबोध उनियाल समेत पार्टी के दूसरे नेताओं का व्यवस्थाओं पर प्रश्न उठाना. यह सब वह उदाहरण हैं जो साबित करते हैं कि 5 सालों में भी कांग्रेस की परिपाटी वाले यह नेता भाजपा की विचारधारा और सोच को अपना नहीं पाए. यह विचारधारा और पार्टी में व्यवस्थाओं का अंतर ही है कि भाजपा में शामिल होने के बाद भी भाजपा की परिपाटी को स्वीकार करने में बागी नेताओं को काफी परेशानी हो रही है.
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बागी बनते हैं पार्टी नेताओं की नाराजगी का कारण: बीजेपी भले ही दूसरी विचारधारा के नेताओं को पार्टी में शामिल कर उनसे बेहतर काम करने की उम्मीद लगाती हो, लेकिन हकीकत यह है कि इस बड़े परिवार के चक्कर में पार्टी के मंझे हुए और वफादार नेता ही पार्टी से दूर हो जाते हैं. इसकी एक बड़ी वजह भी है. दूसरी पार्टी से आए नेताओं को भाजपा किसी ना किसी लालसा के जरिए पार्टी में शामिल करती है. लिहाजा पार्टी के अपने पुराने नेता ही कई बार इस वजह से पीछे छूट जाते हैं. इसका बड़ा उदाहरण 2017 के चुनाव भी है, जब कई बड़े नेताओं के बागियों के चक्कर में टिकट कट गए.