देहरादून: उत्तराखंड में संस्कृत के प्रचार प्रसार (Promotion of Sanskrit in Uttarakhand) को लेकर राज्य सरकार की कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई देती, वो बात अलग है कि सरकार नेम प्लेट और अपने सरकारी एजेंडे में संस्कृत के विकास की बातें करने से नहीं चूकती. उधर नौकरशाह तो संस्कृत से परहेज करते दिखाई देते हैं, मुख्य सचिव डॉ एसएस संधू (Chief Secretary Dr SS Sandhu) की नेम प्लेट से संस्कृत का हटना तो इसी ओर इशारा करता है.
उत्तराखंड विधानसभा भवन के नाम से लेकर विधानसभा में मौजूद मंत्रियों के कार्यालयों में भी संस्कृत को लेकर राज्य सरकार की प्रतिबद्धता साफ दिखाई देती है. पूर्व भाजपा सरकार में संस्कृत को राज्य की द्वितीय भाषा का दर्जा दिया गया तो इसे संस्कृत के विकास के लिए एक मील का पत्थर माना गया, लेकिन अफसोस कुछेक प्रयासों के अलावा राज्य में संस्कृत न तो सरकारी कामकाज में शामिल हो पाई और ना ही संस्कृत शिक्षा को लेकर कुछ खास प्रचार प्रसार व्यापक स्तर पर दिखाई दिया.
इसकी सबसे बड़ी वजह नौकरशाही का इस भाषा को लेकर परहेज माना जा सकता है. खास बात यह है कि खुद राज्य के मुख्य सचिव डॉ एसएस संधू की नेम प्लेट से संस्कृत शब्दों को हटा दिया गया है. पूर्व मुख्य सचिव उत्पल कुमार का नाम जहां हिंदी के साथ संस्कृत भाषा में भी नेम प्लेट में दिखाई देता था, वही इस परंपरा को खत्म करते हुए मौजूदा मुख्य सचिव डॉ एसएस संधू ने संस्कृत की बजाए अंग्रेजी को प्राथमिकता देना ज्यादा मुनासिब समझा. यही नहीं विधानसभा में तो मंत्रियों के नाम हिंदी के साथ संस्कृत में लिखे गए हैं, लेकिन सचिवालय में अधिकारियों की नेम प्लेट में संस्कृत भाषा को लेकर दूरी ही दिखाई देती है, लेकिन आज हमारी खबर का विषय संस्कृत भाषा की नेम प्लेट को लेकर नहीं है बल्कि संस्कृत के प्रचार-प्रसार और विकास के लिए बनाई गई संस्कृत अकादमी की पिछले 1 साल में खराब हालात को बताना है.
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