देहरादून:आम को फलों का राजा माना जाता है तो लीची फलों की रानी है, ये दोनों ही राजधानी देहरादून की खास पहचान हैं. यहां की लीची, आम देश और दुनिया के कोने-कोने में अपने लाजवाब स्वाद के लिए जाने जाते हैं. लीची और आम की ये स्वादिष्ट खेप एक विशेष गार्डन में तैयार होती है, जिसे पूरे उत्तर भारत में मदर गार्डन आफ 'लीची' कहा जाता है, आइये आपको इस गार्डन की विशेताओं के साथ-साथ यहां कैसे काम होता है इससे रुबरु करवाते हैं.
वर्ष 1910 में अंग्रेजों ने की थी स्थापना
देहरादून शहर आज भले ही कंक्रीटों के जंगल में तब्दील हो चुका है, लेकिन एक वक्त था जब यह अपनी लीची और आम के लिए पूरे देश और दुनिया में जाना जाता था. अंग्रेज जब भारत आए तो मसूरी उनके पसंदीदा जगहों में से एक थी. वहीं, देहरादून में अंग्रेजों ने कई ऐसे उद्यान विकसित किए जो आज अपना अस्तित्व खो चुके हैं. इन्हीं में से एक उद्यान अंग्रेजों द्वारा वर्ष 1910 में स्थापित किया गया था. जिसे मदर गार्डन ऑफ लीची के नाम से जाना जाता है. इस उद्यान में आज भी लीची और आम की पैदावार होती है और आज भी यह उतना ही फेमस है. मुख्यमंत्री निवास से लगा यह बाग आज उत्तराखंड सरकार के उद्यान विभाग के अधीन है और इसे सर्किट हाउस गार्डन के नाम से जाना जाता है. आज भी इस बगीचे में लीची के 60-70 साल पूरे पेड़ लगे हुए हैं.
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"देहरा रोज" इस गार्डन की विशेषता
लीची की प्रजातियों में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध और लोकप्रिय रोज सेंटेड लीची को माना जाता है, जिसको जन्म देने वाला यही उद्यान है. बताया जाता है इस लीची की वजह से देहरादून को विशेष पहचान मिली थी. शुरुआत में इस लीची को "देहरा रोज" के नाम से जाना जाता था. आज भी इस गार्डन में लीची की 5 अलग-अलग तरह की प्रजाती पायी जाती है. वहीं, आज भी लीची की सभी किस्मों का संरक्षण और संवर्धन यहां किया जाता है.
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हर साल 35 हजार लीची की पौध होती है तैयार
देहरादून मुख्यमंत्री आवास से लगा यह उद्यान 7.14 हेक्टेयर में फैला है. इस विशाल बगीचे से ना केवल हर साल उद्यान विभाग को लाखों का राजस्व आता है, बल्कि हर साल यहां से तकरीबन 25 हजार लीची की उन्नत किस्म की नई पौध बनकर तैयार होती है, जो कि प्रदेश में और प्रदेश के बाहर भी भेजी जाती है. गार्डन इंचार्ज दीपक पुरोहित ने बताया कि उत्तराखंड सहित उत्तरप्रदेश और आस पास में जहां भी लीची पायी जाती है. उन सबके लिए यह बाग मदर गार्डन है, क्योंकि सब जगह लीची इसी बगीचे से गयी है और अभी भी हर साल 35 हजार पौध यहां से बनाकर दूसरी जगहों पर भेजा जाता है.