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चुनाव से पहले उत्तराखंड में शुरू हुआ दल-बदल का 'खेल', कितना सही-कितना गलत?

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Published : Sep 1, 2021, 9:55 PM IST

Updated : Sep 1, 2021, 10:41 PM IST

भारतीय राजनीति में व्यक्तिगत या सामूहिक दल-बदल की खबरें अब कोई नई बात नहीं है. छोटे राज्यों में चुनावों से पहले या किसी ऐसी परिस्थिति में अक्सर ही विधायक पाला बदलकर राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति पैदा करते हैं. उत्तराखंड में दल बदल के कारण ही साल 2016 में हरीश रावत सरकार को फ्लोर टेस्ट से गुजरना पड़ा था. अब राज्य में विधानसभा चुनाव से पहले एक बार फिर दल-बदल का दौर शुरू हो गया है.

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चुनाव से पहले उत्तराखंड में शुरू हुआ दल-बदल का 'खेल'

देहरादून: आगामी 2022 विधानसभा चुनाव से पहले नेताओं का एक पार्टी का दामन छोड़ने और दूसरे दामन को थामने का सिलसिला शुरू हो गया है. अभी फिलहाल छोटे नेता अपने दलों को छोड़कर दूसरे दलों में शामिल हो रहे हैं. ऐसे में चर्चाएं इस बात की भी हैं कि चुनाव से पहले कई बड़े चेहरे भी दलबदल कर सकते हैं. आगामी चुनाव में दल बदल का पार्टियों को कितना फायदा मिलेगा? चुनाव से पहले आखिर राजनीति में ऐसा क्यों होता है?

उत्तराखंड में चुनावी सरगर्मियां तेज हो गई हैं. जिसके कारण राजनीतिक दल पूरी तरह से सक्रिय हो गए हैं. वहीं, नेता भी अपने भविष्य को सुरक्षित करने की जद्दोजहद में जुट गये हैं. जिसकी बानगी दल बदल के रूप में सामने आ रही है. लंबे समय से एक पार्टी जमे हुए छोटे से बड़े नेता दूसरे दलों में शामिल हो रहे हैं. आगामी विधानसभा चुनाव में अभी तीन से चार महीने का वक्त है, ऐसे में राजनीतिक पार्टियां अभी से ही अपने दलों को मजबूत करने की कवायद में जुटी हुई हैं. जिसके लिए अन्य दलों के नेताओं को अपने दलों में शामिल करने की जुगत जारी है.

चुनाव से पहले उत्तराखंड में शुरू हुआ दल-बदल का 'खेल'

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किसी भी नेता के एक दल को छोड़कर दूसरे दल में शामिल होने की घटना एक सामान्य प्रक्रिया है. किसी भी चुनाव के दौरान ऐसी स्थितियां राजनीतिक गलियारों में देखने को मिलती हैं. जिसका असर वर्तमान समय में उत्तराखंड में देखने को मिल रहा है. हालांकि, वही नेता दूसरे दल में शामिल होते हैं जिन्हें या तो पार्टी में तवज्जो नहीं मिलती, या फिर उन्हें लगता है कि चुनाव के दौरान उन्हें पार्टी से टिकट नहीं मिल पाएगा. जिसके चलते वे दूसरे दल में शामिल हो जाते हैं. उत्तराखंड में वर्तमान समय में तमाम बीजेपी के नेता कांग्रेस व अन्य दलों में शामिल होते दिखाई दे रहे हैं.

शुरू हुआ दल-बदल का खेल: हाल ही में आरएसएस नेता महेंद्र सिंह नेगी समेत उनके सैंकड़ों समर्थकों ने कांग्रेस का हाथ थामा. महेंद्र सिंह नेगी (गुरुजी) और उनके समर्थकों को पूर्व सीएम हरीश रावत और प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल ने कांग्रेस की सदस्यता दिलायी. वहीं, मंगलवार को बीजेपी से इस्तीफा देने के बाद विनोद चौधरी ने भी अपने कई समर्थकों के साथ कांग्रेस ज्वॉइन की. इसके अलावा बीजेपी युवा मोर्चा के दर्जनों कार्यकर्ता भी कांग्रेस में शामिल हुए. कांग्रेस अब इन नेताओं के दम पर आगामी विधानसभा चुनाव में जीत के साथ ही सरकार बनाने का दावा कर रही है. वहीं, अन्य दलों में छोटे स्तर पर दल बदल का खेल जारी है.

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संभावनाओं की तलाश में नेता करते हैं दलबदल:नेताओं के दूसरे दलों में शामिल होने के सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बताते हैं कि आगामी चुनाव के दृष्टिगत दिसंबर में आचार संहिता लग रही है. ऐसे में समय बहुत कम है. जिसके चलते नेताओं में भगदड़ शुरू हो गई है. नेता संभावनाओं को देखते हुए दूसरे दलों में शामिल होते हैं. हालांकि, अभी फिलहाल छोटे नेता अन्य दलों में शामिल हो रहे हैं. लेकिन आचार संहिता लगने से पहले कई बड़े नेताओं के भी दलबदल करने के आसार हैं. यही नहीं, चर्चाएं इस बात की भी थी कि जो नेता साल 2016 में कांग्रेस का दामन छोड़ बीजेपी में शामिल हुए थे वो नेता कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं. मगर फिलहाल कांग्रेस की स्थिति ऐसी है कि पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के रहते ऐसा संभव नहीं हो पाएगा.

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'आप' ने CM का चेहरा घोषित कर बंद किए दरवाजे:जय सिंह रावत ने कहा आम आदमी पार्टी ने कर्नल अजय कोठियाल को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर पार्टी में आने वाले बड़े नेताओं के लिए दरवाजा बंद कर दिया है. ऐसे में तमाम भाजपा नेताओं की कांग्रेस में जाने की संभावना बन रही है. वहीं कांग्रेस के तमाम नेताओं की भी बीजेपी में आने की संभावना है. उन्होंने कहा 5 साल में ये 6 महीने का वक्त आता है, जब नेताओं में भगदड़ देखी जाती है.

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नेताओं का दलबदल करना, एक गलत प्रवृत्ति:वहीं, कांग्रेस प्रदेश महामंत्री मथुरा दत्त जोशी ने बताया कि जब कोई नेता पार्टी छोड़ कर किसी अन्य दल में शामिल होता है तो ऐसे में उस पार्टी को नुकसान जरूर होता है. जिस दल में शामिल होता है उस दल को फायदा भी पहुंचाता है. हालांकि, दलबदल करना नेताओं के विचार और उनके सोच पर निर्भर करता है. मथुरा दत्त जोशी ने कहा यह एक गलत प्रवृत्ति है, नेता जिस पार्टी में हैं उस पार्टी के प्रति उनको निष्ठावान होना चाहिए. उस पार्टी को धोखा नहीं देना चाहिए, क्योंकि पार्टी मां समान होती है, जो नेताओं को सम्मान और पहचान दिलाती है. ऐसे में उसकी कद्र करनी चाहिए.

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बीजेपी में शामिल होने के लिए तैयार कांग्रेस का एक हिस्सा:वहीं भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता शादाब शम्स, नेताओं के दलबदल को सही मानते हैं. शादाब शम्स ने कहा अभी फिलहाल भाजपा के छोटे नेता कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं. जिसको लेकर कांग्रेस को बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है. अभी फिलहाल भाजपा ने अपने दरवाजे बंद किए हुए हैं.

लेकिन जैसे ही भाजपा आलाकमान से लोगों को पार्टी में शामिल करने की अनुमति मिलेगी उसके बाद ही कांग्रेस का एक बड़ा हिस्सा भाजपा में शामिल होने के लिए तैयार बैठा है. यही नहीं, शादाब शम्स ने कहा हरीश रावत अपनी जमीन खो चुके हैं. कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल के पास जमीन ही नहीं है. लिहाजा वे अपने ग्रुप को मजबूत करने को लेकर छोटे-छोटे नेताओं को अपने पार्टी में शामिल कर रहे हैं.

दल-बदल विरोधी कानून क्या है?:साल 1967 में हरियाणा के एक विधायक ने एक दिन में तीन बार पार्टी बदली. इस प्रथा को को रोकने के लिए 1985 में 52वां संविधान संशोधन किया गया. संविधान में 10वीं अनुसूची जोड़ी गई. इस अनुसूची में दल-बदल विरोधी कानून को शामिल किया गया.

इन प्रावधनों में दल-बदल विरोधी कानून के तहत जनप्रतिनिधि को अयोग्य घोषित किया जा सकता है

  • एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है.
  • कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है.
  • किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट यानी क्रॉस वोटिंग की जाती है.
  • कोई सदस्य स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है यानी वॉक आउट करता है.
  • छह महीने की समाप्ति के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है.

जनप्रतिनिधि को अयोग्य घोषित करने की शक्ति किसके पास?: दल-बदल कानून के मुताबिक सदन के अध्यक्ष के पास सदस्यों को अयोग्य करार देने संबंधी निर्णय लेने की शक्ति है. यदि सदन के अध्यक्ष के दल से संबंधित कोई शिकायत प्राप्त होती है तो सदन द्वारा चुने गए किसी अन्य सदस्य को इस संबंध में निर्णय लेने का अधिकार है.

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कब जनप्रतिनिधि पर लागू नहीं होता यह कानून:इस कानून में एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में विलय करने की अनुमति है. शर्त इतनी है कि उस दल के न्यनूतम दो. तिहाई जनप्रतिनिधि विलय के पक्ष में हों. ऐसी स्थिति में जनप्रतिनिधियों पर दल-बदल कानून लागू नहीं होगा. .

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दल-बदल कानून के लागू होने से क्या बदलाव और फायदा:दल-बदल विरोधी कानून के लागू होने के बाद जनप्रतिनिधियों के राजनीतिक पार्टियां बदलने पर रोक लगी. यह कानून चुनी हुई सरकारों को स्थिरता प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. अवसरवादी राजनीति पर रोक लगने के साथ असमय चुनाव और उस पर होने वाले खर्च को नियंत्रित करने में भी मदद मिली है.

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दल-बदल कानून के विरोध में भी दिए जाते हैं कई मजबूत तर्क:राजनीतिक विश्लेषक दल-बदल कानून की खामियां भी बताते हैं. उनके मुताबिक इस कानून के कारण राजनीतिक पार्टियों के अंदर लोकतांत्रिक व्यवस्था प्रभावित हुई है. यदि किसी जनप्रतिनिधि के विचार पार्टी लाइन से अलग हैं, फिर भी इस कानून की वजह से वह अपनी आवाज बुलंद नहीं कर सकता.

आसान शब्दों में कहें तो दल-बदल विरोधी कानून के कारण किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़े सदस्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगता है. इस कानून की आलोचना में यह भी तर्क दिया जाता है कि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोच्च होती है. उसकी अनुमति से ही शासन चलता है. लेकिन दल-बदल कानून जनता की बजाय राजनीतिक दलों के शासन को मजबूती देता है.

Last Updated : Sep 1, 2021, 10:41 PM IST

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