देहरादूनः उत्तराखंड में चुनाव परिणाम यह जाहिर कर चुके हैं कि कांग्रेस का पहाड़ों पर जनाधार (Congress lost in the hills seats) कम हो रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह कांग्रेस का पहाड़ों से दूरी बनाना है. ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि पार्टी संगठन की तरफ से प्रदेश में पहाड़ी जिलों पर बड़े आयोजनों को लेकर हमेशा कंजूसी की जाती रही है. इसका खामियाजा कांग्रेस को राजनीतिक रूप से दिखाई भी दे रहा है.
प्रदेश कांग्रेस (uttarakhand congress) विपक्ष की भूमिका में बड़े आयोजनों के लिहाज से सिर्फ मैदानी जिलों में ही दिखाई देती रही है. पिछले कुछ सालों में कांग्रेस ने अपना फोकस मैदानी जिलों की तरफ ही रखा है. उधर संगठन स्तर पर कांग्रेस के नेता पहाड़ों पर बड़े आयोजनों को लेकर कुछ खास करते नहीं दिखाई दे रहे हैं. पार्टी के बड़े विरोध कार्यक्रम या संवाद का आयोजन केवल देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी और उधम सिंह नगर तक ही सिमट गए हैं. नतीजतन पहाड़ों से विधानसभा सीटों को लेकर भी कांग्रेस सिमटती हुई दिखाई दे रही है. हालांकि, पार्टी के कुछ नेताओं ने पहाड़ों पर दौरे जरूर किए, लेकिन उनका असर नहीं हुआ.
2017 चुनाव का आकंड़ाःपहाड़ों पर कांग्रेस की राजनीतिक कार्यक्रमों के लिहाज से कम दिलचस्पी का ही नतीजा है कि विधानसभा चुनाव 2017 और 2022 दोनों ही चुनावों में पार्टी को सबसे ज्यादा झटका पहाड़ी जिलों से लगा है. 2017 के विधानसभा चुनाव में देखा जाए तो गढ़वाल मंडल की पहाड़ी जिलों की 20 विधानसभा सीटों में से केवल 2 सीटें (केदारनाथ और पुरोला) ही कांग्रेस जीत पाई थी. उधर, कुमाऊं मंडल के 4 पहाड़ी जिलों की 14 विधानसभा सीटों में केवल 3 विधानसभा सीटें (धारचूला, रानीखेत, जागेश्वर) ही कांग्रेस जीत पाई थी. बाकी 6 सीटें दोनों मंडल की मैदानी सीटों से जीती थी.