देहरादून:उत्तराखंड की राजनीति अन्य राज्यों के मुकाबले काफी भिन्न है. साल 2000 में उत्तर प्रदेश से पृथक होकर एक अलग पहाड़ी राज्य बने उत्तराखंड में अभी तक चार विधानसभा चुनाव संपन्न हो चुके हैं. हालांकि, इन चारों विधानसभा चुनावों में जनता ने कांग्रेस और भाजपा को बारी-बारी से सत्ता पर काबिज होने का मौका दिया. मुख्य रूप से यही दोनों पार्टियां राज्य गठन के बाद से ही राज्य की दिशा और दशा तय करती रही हैं, लेकिन इन दिनों देश के तमाम राज्यों से कांग्रेस चुनाव हार रही है तो वहीं उत्तराखंड में भी कांग्रेस की स्थिति कुछ खास ठीक नहीं है.
उत्तराखंड की राजनीति में कांग्रेस की एक अहम भूमिका रही है, जिसकी मुख्य वजह ये है कि प्रदेश के भीतर दो ही पार्टियां पूर्ण रूप से सक्रिय रही हैं. हालांकि, यहां क्षेत्रीय पार्टी उत्तराखंड क्रांति दल के साथ ही बसपा और सपा की मौजूदगी भी है लेकिन वो नाममात्र के लिये भी है. जनता ने भी भाजपा-कांग्रेस को ही सत्ता पर काबिज होने को लेकर अपना मत दिया है. लेकिन साल 2017 विधानसभा चुनाव के बाद मानो जनता की राय कांग्रेस के लिए बिल्कुल बदल ही गई है.
उत्तराखंड की राजनीति में यह पहली मर्तबा हुआ है जब कोई पार्टी भारी बहुमत से सत्ता पर काबिज हुई हो और वह पार्टी 2017 में भाजपा बनी. भाजपा ने 2017 विधानसभा चुनाव में कुल 70 विधानसभा सीटों में से 57 सीटें जीतीं तो वहीं कांग्रेस मात्र 11 सीटों पर ही सिमट गई. इतिहास में कांग्रेस की ये सबसे बड़ी हार रही है. हालांकि, कांग्रेसी नेता इस हार को लेकर अपने ही पार्टी नेताओं पर ठीकरा फोड़ते रहे हैं, बावजूद इसके कांग्रेस अभी तक न ही संभल पाई है और न ही ग्राउंड जीरो पर अपनी स्थिति मजबूत कर पाई है.
साल 2017 कभी न भूल पाएगी कांग्रेस
साल 2000 में उत्तराखंड राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में 4 विधानसभा चुनाव हुए हैं. इन चारों चुनावों में क्रम से एक बार बीजेपी तो एक बार कांग्रेस सत्ता पर काबिज हुई है. साल 2002 में हुये शुरुआती चुनाव में कांग्रेस ने सबसे अधिक 36 सीट जीत कर स्व0 नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में पहली सरकार बनाई थी. तिवारी के नाम ही अबतक पूरे 5 साल मुख्यमंत्री बने रहने का रिकॉर्ड भी है.
इसके बाद साल 2007 में कांग्रेस की स्थिति बिगड़ी और पार्टी मात्र 21 सीटें ही जीत पाई. सत्ता बीजेपी को मिली. साल 2012 में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने फिर एक बार अपना दमखम दिखाया लेकिन 32 सीटों पर ही सिमट गई. लेकिन जोड़-तोड़ की राजनीति करने के बाद कांग्रेस को सत्ता दोबारा हासिल हो गई. लेकिन समय का चक्र फिर घूमा और जनता ने कांग्रेस को सिरे से नकारते हुये साल 2017 में भाजपा को प्रचंड बहुमत देकर सत्ता तक पहुंचाया. कांग्रेस को इस कदर हार मिली कि वो मात्र 11 सीटों पर ही सिमट कर रह गई. यही नहीं, कांग्रेस के कर्ता-धर्ता और पूर्व सीएम दोनों सीटों (किच्छा व हरिद्वार ग्रामीण) से चुनाव हार गये.
साल 2002 में राज्य को मिला था विकास का बड़ा पैकेज
अगर उत्तराखंड में विकास की बात करें तो साल 2002 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता पर काबिज हुए एनडी तिवारी की सरकार ने राज्य की दिशा और दशा तय करने में अहम भूमिका निभाई थी. क्योंकि एनडी तिवारी ने राज्य को कई बड़े औद्योगिक पैकेज दिए. जिसके चलते ना सिर्फ राज्य में रोजगार पैदा हुए बल्कि इंडस्ट्रियों की भी भरमार लग गयी. साल 2007 में हुए दूसरे विधानसभा चुनाव के दौरान भी विकास कार्य हुए लेकिन उतनी तेजी से राज्य के भीतर विकास कार्य नहीं हो पाए.
उधर, साल 2013 में आयी केदारनाथ आपदा ने प्रदेश की स्थितियां बदल दीं. केदारनाथ आपदा के बाद देश-विदेश से लोगों ने मदद के हाथ बढ़ाए लेकिन उस दौरान भ्रष्टाचार के तमाम मामले सामने आने के बाद प्रदेश की जनता ने कांग्रेस को नकार दिया और इस कदर नकारा कि साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पूरी तरह से खत्म होने के कगार पर आ गई.
मौजूद स्थिति का जिम्मेदार खुद कांग्रेसी
राजनीतिक जानकार जय सिंह रावत ने बताते हैं कि राज्य के भीतर कांग्रेस की स्थिति काफी दयनीय बनी है. इसकी मुख्य वजह कांग्रेस के भीतर की आपसी गुटबाजी ही है, जो इनदिनों चरम सीमा पर है. रावत बताते हैं कि राज्य गठन के बाद से ही जब साल 2002 में कांग्रेस सत्ता पर काबिज हुई थी उस दौरान ही राज्य के भीतर कांग्रेस के बड़े नेताओं के बीच विवाद चलता रहा और यह मामला अभी भी जारी है.
हालांकि, शुरुआती दिनों में तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी और हरीश रावत के बीच एक लंबा विवाद चला था. इसके बाद मामला यहीं नहीं रुका क्योंकि हरीश रावत का सिर्फ एनडी तिवारी से ही विवाद नहीं रहा बल्कि राज्य के कई बड़े नेताओं से भी उनकी नहीं बनी. हालात ये हैं कि प्रदेश कांग्रेस के मुखिया प्रीतम सिंह कुछ बयान देते हैं तो पूर्व सीएम हरीश रावत कुछ और. दोनों की अनबन इतनी हो चुकी है कि अब दोनों नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप भी लगा रहे हैं, जिससे जनता के बीच प्रदेश कांग्रेस की छवि बेहद खराब होती जा रही है.हालांकि, मुख्य रूप से देखें तो कहीं न कहीं उत्तराखंड कांग्रेस शुरू से ही आपसी गुटबाजी का शिकार होती रही है, जिसके चलते मात्र एक विधानसभा चुनाव को छोड़ बाकी किसी भी विधानसभा चुनाव में बहुमत हासिल नहीं कर पाई और जोड़-तोड़ की राजनीति कर ही सत्ता पर काबिज हुई.