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'अनसुनी नहीं हो रही जनता की आवाज, भू-कानून के लिए उच्च स्तरीय समिति का होगा गठन'

CM धामी ने भू कानून को लेकर बोलते हुए कहा कि आपकी आवाज की अनसुनी नहीं हो रही है. उन्होंने कहा भू-कानून के लिए उच्च स्तरीय समिति का गठन किया जाएगा.

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भू-कानून के लिए उच्च स्तरीय समिति का होगा गठन

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Published : Aug 15, 2021, 4:21 PM IST

देहरादून: उत्तराखंड में पिछले लंबे समय से भू-कानून की मांग (land law demand) की जा रही है. वहीं, प्रदेश के युवाओं को नए सीएम पुष्कर सिंह धामी से भू-कानून को लेकर काफी उम्मीदें है कि वे मामले पर कुछ कर सकते हैं. स्वतंत्रता दिवस के मौके पर सीएम धामी ने कहा कि 'प्रदेश में भू-कानून को लेकर कई तरह की आशंकाएं व्यक्त की गयी हैं, कई प्रदेशवासी इस मामले को लेकर आवाज़ उठा रहे हैं. मैं उन सभी को ये बताना चाहता हूं कि आपकी आवाज अनसुनी नहीं हो रही है, हमारी सरकार आम जनता की सरकार है और आपकी हर बात हम तक पहुंचती है.

सीएम पुष्कर सिंह धामी ने कहा 'मैं आप सभी को आश्वस्त करना चाहता हूं कि इस मामले में समग्र रूप से विचार के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया जाएगा, जो उत्तराखण्ड की भूमि के संरक्षण के साथ-साथ प्रदेश में रोजगार-निवेश इत्यादि सभी पहलुओं को ध्यान में रखेगी'.

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उत्तराखंड में भू-कानून (Land Law in Uttarakhand) की मांग भले ही एक दशक पुरानी है, लेकिन हाल ही में सोशल मीडिया और युवाओं द्वारा इस मांग को लेकर बड़े स्तर पर आंदोलन देखा जा रहा है. पिछले एक महीने में अलग-अलग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर युवा भू-कानून की मांग कर रहे हैं. ऐसे में प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से युवाओं की उम्मीदें (Youth hopes from CM Pushkar Singh Dhami) और बढ़ गई है. वहीं, सीएम धामी ने भी युवाओं की इस मांग को लेकर गंभीर दिखाई दे रहे हैं.

क्या है भू-कानून

भू-कानून का सीधा-सीधा मतलब भूमि के अधिकार से है. यानी आपकी भूमि पर केवल आपका अधिकार है न की किसी और का. जब उत्तराखंड बना था तो उसके बाद साल 2002 तक बाहरी राज्यों के लोग उत्तराखंड में केवल 500 वर्ग मीटर तक जमीन खरीद सकते थे. वर्ष 2007 में बतौर मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी ने यह सीमा 250 वर्ग मीटर कर दी. इसके बाद 6 अक्टूबर 2018 को तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत एक नया अध्यादेश लाए, जिसका नाम 'उत्तरप्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि सुधार अधिनियम, 1950 में संशोधन का विधेयक' था. इसे विधानसभा में पारित किया गया.

बाद में इसमें धारा 143 (क), धारा 154(2) जोड़ी गई. यानी पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को समाप्त कर दिया गया. अब कोई भी राज्य में कहीं भी भूमि खरीद सकता था. साथ ही इसमें उत्तराखंड के मैदानी जिलों देहरादून, हरिद्वार और यूएसनगर में भूमि की हदबंदी (सीलिंग) खत्म कर दी गई. इन जिलों में तय सीमा से अधिक भूमि खरीदी या बेची जा सकेगी.

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उत्तराखंड की अगर बात करें तो एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2000 के आंकड़ों पर नजर डालें तो उत्तराखंड की कुल 8,31,227 हेक्टेयर कृषि भूमि 8,55,980 परिवारों के नाम दर्ज थी. इनमें 5 एकड़ से 10 एकड़, 10 एकड़ से 25 एकड़ और 25 एकड़ से ऊपर की तीनों श्रेणियों की जोतों की संख्या 1,08,863 थी. इन 1,08,863 परिवारों के नाम 4,02,422 हेक्टेयर कृषि भूमि दर्ज थी. यानी राज्य की कुल कृषि भूमि का लगभग आधा भाग. बाकी 5 एकड़ से कम जोत वाले 7,47,117 परिवारों के नाम मात्र 4,28,803 हेक्टेयर भूमि दर्ज थी.

ये आंकड़े दर्शाते हैं कि, किस तरह राज्य के लगभग 12 फीसदी किसान परिवारों के कब्जे में राज्य की आधी कृषि भूमि है. बची 88 फीसदी कृषि आबादी भूमिहीन की श्रेणी में पहुंच चुकी है. हिमाचल के मुकाबले उत्तराखंड का भू-कानून बहुत ही लचीला है, इसलिए सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय लोग एक सशक्त हिमाचल के जैसे भू-कानून की मांग कर रहे हैं.

वैसे तो भू-कानून की मांग उत्तराखंड में समय-समय पर राजनीतिक और सामाजिक लोगों द्वारा उठाई जाती रही है. अब इस मुहिम में युवाओं का जुड़ना कहीं ना कहीं राजनीतिक पार्टियों के लिए भी कान खड़े करने वाली बात है. ऊपर से यह चुनावी साल है. इससे अनुमान लगाया जा रहा है कि चुनावों में भी भू-कानून की मांग जोर पकड़ सकती है. सोशल मीडिया के माध्यम से जोर पकड़ रही मुहिम में सियासी नेता भी अब उतर पड़े हैं.

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