देहरादून: कोरोना संकट के दौर में इलाज न मिलने के कारण गर्भवती महिलाओं को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा. इस दौरान सार्वजनिक वाहनों का अभाव, निजी वाहनों पर प्रतिबंध के साथ ही इन महिलाओं को एंबुलेंस के लिए भी काफी जद्दोजहद करनी पड़ी. इस दौरान अस्पतालों से प्रसव के जो नये आंकड़े सामने आये हैं वो इस बात की तस्दीक करते हैं कि इस नाजुक दौर में कितनी गर्भवती महिलाओं को परेशानियों का सामना करना पड़ा.
उत्तराखंड में 22 मार्च से शुरू हुआ लॉकडाउन अभी भी जारी है. हालांकि देश में अनलॉक की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. जिसमें कुछ रियायतों के साथ एक बार फिर से जीवन को पटरी पर लाने की कोशिशें की जा रही हैं. मगर कोरोना का खौफ आज भी पहले जैसा ही है. गर्भवती महिलाओं के लिहाज से देखें तो लॉकडाउन में इन महिलाओं को सबसे ज्यादा खतरा झेलना पड़ा है. राज्य में पूर्ण लॉकडाउन के दौरान गर्भवती महिला को अस्पतालों तक पहुंचाना बेहद मुश्किलों भरा रहा.
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एंबुलेंस की उपलब्धता, सड़कों पर गाड़ियों की गैरमौजूदगी ने गर्भवतियों की हालत खराब की. यही नहीं अस्पतालों में कोरोना के डर से भी महिला और परिजनों ने प्रसव कराने से बचने की कोशिश भी की. शायद यही कारण है कि अस्पतालों में गर्भवती महिलाओं का पूर्ण लॉकडाउन के दौरान जाना काफी कम रहा.
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जानकारी के अनुसार अस्पतालों में गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी केस की संख्या कम आंकी गई है. यही नहीं अस्पतालों में नॉर्मल डिलीवरी के मुकाबले सामान्य दिनों के लिहाज से सिजेरियन डिलीवरी में भी काफी कमी आयी है. महिला हितों को लेकर काम करने वाली साधना शर्मा बताती हैं कि लॉकडाउन के नियमों को काफी सख्त किया गया. जिसके कारण गर्भवती महिलाएं अस्पतालों तक नहीं पहुंच पाई.
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उत्तराखंड में जून के पहले सप्ताह तक निजी अस्पताल या तो बंद रहे या फिर ऑपरेशन वाले मामलों को उन्होंने लिया ही नहीं. सरकार का इशारा मिलने के बाद जून के दूसरे सप्ताह से पूरी तरह से काम शुरू किया गया. खबर है कि घर पर प्रसव करवाना बेहद खतरनाक होने के बावजूद भी लॉकडाउन की पाबंदियों और कोविड-19 के डर के चलते महिलाओं ने घर पर ही डिलीवरी करवाई. इसके अलावा गर्भवती महिलाओं के रूटीन चेकअप भी इस दौरान नहीं हो सके.
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देहरादून जिले में इस दौरान करीब 2000 गर्भवती महिलाओं को कोरोना के डर या असुविधा से जूझना पड़ा. जबकि प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में तो महिलाएं संसाधनों के न होने के चलते घरों पर ही डिलीवरी कराने को मजबूर हुईं.
वरिष्ठ गायनोकोलॉजिस्ट डॉ. रितु गुप्ता बताती हैं कि कोविड-19 के चलते महिलाएं अस्पतालों को सुरक्षित नहीं समझ रही हैं. इसी वजह से महिलाएं घरों में ही डिलीवरी करवा रही हैं, जो कि बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं है. डॉ. रितु गुप्ता कहती हैं कि यूं तो गर्भवती महिला को रूटीन चेकअप के लिए कई बार अस्पताल आना पड़ता है, लेकिन ऐसी महिलाओं को इस दौरान चार बार अस्पताल जाना बेहद जरूरी है. इसमें सबसे पहले महिला को गर्भवती होने पर डॉक्टर्स को दिखाना चाहिए. इसके बाद गर्भ के तीसरे महीने, छठे महीने और नौवें महीने में भी महिला का अस्पताल में चेकअप के लिए आना होता है. इस दौरान गर्भवती महिला के ब्लड प्रेशर की जांच, टीकाकरण और डाइट की जानकारी देने का काम किया जाता है. ऐसा बेहद जरूरी है क्योंकि भारत में खून की कमी यानी एनीमिया की महिलाओं में ज्यादा समस्या है.
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लॉकडाउन में कोरोना का डर आम लोगों से लेकर डॉक्टर्स में भी दिखाई दिया. सिजेरियन डिलीवरी के केस कम होने के पीछे की एक वजह इसे भी माना जा रहा है. बताया जा रहा है कि अब डॉक्टर नार्मल डिलीवरी के लिए इंतजार करने के साथ इसकी ज्यादा कोशिश कर रहे हैं. खास बात यह है कि शुरुआती दौर में अस्पतालों में सुरक्षा किट की कमी के चलते डॉक्टर को भी ऑपरेशन करने में खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ा.
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दून मेडिकल कॉलेज के महिला चिकित्सालय को कोविड-19 के लिए चिन्हित किया गया है. ऐसे में यहां संक्रमित गर्भवती महिला या संदिग्ध क्षेत्रों में रहने वाली गर्भवती महिलाओं के प्रसव को करवाया जा रहा है. अस्पताल की चिकित्सक बताती हैं कि ऐसी महिलाएं जो संक्रमित हैं उनका प्रसव बेहद सावधानी के साथ करवाया जाता है, क्योंकि इससे डॉक्टर्स में भी संक्रमण फैलने का खतरा रहता है.
जानकार बताते हैं कि इस दौरान करीब 60 प्रतिशत तक सिजेरियन केस में कमी आई है. मैदानी जिलों में सिजेरियन डिलीवरी के मामलों में कमी ज्यादा देखी गई है. हालांकि कई बार कोरोना का डर गर्भवती महिलाओं पर भारी पड़ा है. इसके अलावा अस्पतालों के केस हैंडल करने में लापरवाही के मामले भी सामने आये हैं.