देहरादून:आज पूरे देश में दिवाली की धूम है. सब लोग इस त्यौहार को मना रहे हैं. हालांकि उत्तराखंड के कुछ इलाके ऐसे भी हैं, जहां दिवाली अभी एक महीने बाद मनाई जाएगी. कुछ इलाकों में 11 दिन बाद भी दिवाली मनाई जाएगी. यहां एक महीने बाद दिवाली मनाने के पीछे कई रोचक कहानियां हैं. आज उत्तराखंड की इसी अनोखी दिवाली के बारे में हम आपको कुछ रोचक जानकारियां देते हैं.
उत्तराखंड की हिमाचल सीमा से लगे जौनसार बाबर क्षेत्र में दिवाली का जश्न करीब एक महीने बाद मनाया जाएगा. इसका मतलब ये है कि इस इलाके में बूढ़ी दिवाली (uttarakhand budhi diwali) मनाई जाएगी. दरअसल यही यहां की परंपरा है कि दिवाली के 1 महीने बाद यहां पर बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है.
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अब से करीब एक महीने बाद जौनसार बावर के अलग-अलग गांवों में पारंपरिक बूढ़ी दिवाली का भिरूड़ी पर्व मनाया जाएगा. इस दौरान गांव के पंचायती आंगन में गांव की सभी महिला, पुरुष और बच्चों के द्वारा पारंपरिक वेशभूषा में खुशियां जाएंगी. इस मौके पर लोगों को हरियाली दी जाएगी, जिसे लोग स्थानीय बोली में 'सोने की हरियाली' कहते हैं.
बूढ़ी दीवाली में भीमल की लकड़ी से मशाल बनाई जाती है. जिसे जलाकर नृत्य किया जाता है. यह दीपावली मनाने का रिवाज पौराणिक काल से है. यहां पर पटाखे, आतिशबाजी का चलन नहीं है. रात को सारे पुरुष होला को जलाकर ढोल-दमाऊ रणसिंगे की थाप पर पंचायती आंगन में लोक नृत्य कर खुशियां मनाते हैं.
उत्तराखंड की बूढ़ी दिवाली का खास महत्व है. आज दिवाली का पर्व मनाने के बाद अगर किसी का भी फिर से दीपावली का त्यौहार मनाने का मन हो तो वह हिमाचल बॉर्डर से लगे उत्तराखंड के इन लोगों की तरह ही बूढ़ी दिवाली मना सकते हैं. इसका मतलब है कि आज दिवाली मनाने के एक महीने के बाद भी देश के एक राज्य में दिवाली का जश्न मनाया जा रहा होगा. दरअसल भारत विविधताओं में एकता का देश है. यहां पर अलग-अलग धर्मों के साथ ही अलग-अलग संकृति और भाषाओं, पंरपराओं के लोग हैं. हर कोई त्योहार को अपने ही अंदाज में मनाता है. उसी में उत्तराखंड में बूढ़ी दिवाली का त्यौहार भी एक है.
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ईको फ्रेंडली बूढ़ी दिवाली:
- बूढ़ी दीवाली में भीमल की लकड़ी से मशाल बनाई जाती है, जिसे जलाकर नृत्य किया जाता है.
- स्थानीय भाषा में इसे होला कहा जाता है.
- यहां खासियत यह है कि जौनसार बावर में बूढ़ी दीपावली में पर्यावरण को प्रदूषित नहीं किया जाता.
- ईको फ्रेंडली दीपावली मनाने का रिवाज पौराणिक काल से है.
- यहां पर पटाखे, आतिशबाजी का चलन नहीं है. इसीलिए मशालों से गांव को रोशन किया जाता है.
- रात को सारे पुरुष होला को जलाकर ढोल-दमाऊ रणसिंगे की थाप पर पंचायती आंगन में लोक नृत्य कर खुशियां मनाते हैं.
- दीपावली के गीत गाते व बजाते हुए वापस अपने अपने घरों को लौट जाते हैं.
- दिवाली की दूसरी रात अमावस्या की रात होती है, जिसे रतजगा कहा जाता है.
- गांव के पंचायती आंगन में अलाव जलाकर नाच गाने का आनंद लिया जाता है.
स्थानीय लोग बताते है कि देश में मनाई जाने वाली दिवाली के ठीक एक माह बाद बूढ़ी दीपावली मनाई जाने की परंपरा है. उन्होंने बताया कि जब देश में दीपावली का जश्न होता है तो उस समय ग्रामीण क्षेत्रों में खेती से जुड़े कार्य अधिक होते हैं. इसी के तहत लोग अपने कृषि कार्य पूरा करने के 1 माह बाद बूढ़ी दीपावली बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं.
वहीं, इससे जुड़ी एक और कहानी बताई जाती है कि यहां को लोगों को भगवान राम के अयोध्या वापस लौटने की जानकारी एक महीने बाद मिली थी. तब उन्होंने खुशी जाहिर करते हुए देवदार और चीड़ की लकड़ियों की मशाल बनाकर रोशनी की. उन्होंने इस दौरान खूब नाच-गाना भी किया था. तब से इन इलाकों में बूढ़ी दिवाली मनाने की परंपरा शुरू हो गई. दिवाली की अगली अमावस्या पर बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है.