देहरादून: स्वास्थ्य योजनाओं से लेकर तमाम सर्वे तक में आशा वर्कर्स की भूमिका खासी अहम है. कोरोनाकाल में आशा दीदीयों का सराहनीय काम वायरस की रोकथाम में बेहद प्रभावी रहा है. लेकिन मौजूदा व्यवस्था दिखाती है कि सिर्फ 2 हजार रुपए के लिए जान दांव पर लगाने वाली आशाएं सरकार की भारी उपेक्षाओं का शिकार हो रही हैं. देखिये स्पेशल रिपोर्ट...
कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी और कर्मचारी इस जंग में दिन-रात अपना योगदान दे रहे हैं. आशा वर्कर भी इस अमले का हिस्सा हैं, जिनका काम गांवों, शहरों, कस्बों में घर-घर जाकर कोरोना से संक्रमित लोगों की पहचान करना और कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए लोगों को जागरूक करना है. लेकिन हैरानी की बात यह है कि आशा वर्कर हॉटस्पॉट क्षेत्रों तक में ड्यूटी दे चुकी हैं, लेकिन अबतक उनका कोई कोरोना टेस्ट नहीं किया गया है.
मानदेय बढ़ाने की मांग कर रहीं आशा वर्कर
देश में 9 लाख आशा वर्कर हैं तो वहीं उत्तराखंड में इनकी संख्या 11 हजार 081 है. इनके काम करने का कोई समय भी तय नहीं हैं. काम के एवज में आशा वर्करों को सिर्फ ₹2000 का मानदेय तय किया गया है. पोलियो, फैमली प्लानिंग और तमाम राष्ट्रीय योजनाओं के लिए सर्वे का काम करने वाली आशा वर्कर फिलहाल कोरोना का सर्वे भी कर रही हैं. एक करीब 1 दिन में 40 परिवारों का डाटा इकट्ठा करती है, जबकि एक आशा के पास करीब 1400 परिवारों की जिम्मेदारी है. आशा वर्करों से साथ हाल ही में कई जगहों पर बदसलूकी की बातें भी सामने आईं हैं.