चंपावत: जिले के बाराही धाम देवीधुरा में गुरुवार को ऐतिहासिक बग्वाल खेली गई. दोपहर 2:08 से शुरू हुई बग्वाल दस मिनट तक खेली गई. जिसमें 122 बग्वालीवीरों घायल हुए. मंदिर के पीठाचार्य द्वारा शंखनाद करने के बाद बग्वाल खत्म की गई. वहीं, चार खाम और सात थोकों के बीच खेली जाने वाली ऐतिहासिक बग्वाल को देखने के लिए भारत के कोने-कोने से लोग पहुंचे. इस दौरान हजारों की संख्या में पहुंचे श्रद्धालुओं ने मां भगवती के दर्शन किए.
देवीधुरा में खेली गई ऐतिहासिक बग्वाल. चंपावत का ये ऐतिहासिक बग्वाल मेला जन्माष्टमी तक चलेगा. जिसमें रात में सांस्कृतिक कार्यक्रम और दिन में बाजार लगता है. आज खेली गई बग्वाल में सबसे पहले वाली खाम ने मंदिर की परिक्रमा शुरू की. जिसके बाद गहड़वाल, लमगड़िया, चम्याल खाम, खोलिखाड़, दुर्वाचौड़ मैदान में पहुंचे. मंदिर के पीठाचार्य के निर्देश पर बग्वाल शुरू की गई. बगवालीवीरों ने पहले चरण में एक दूसरे पर फल फूल बरसाए और अंतिम चरणों में एक दूसरे पर पत्थर और डंडे बरसाए. इस बार की बग्वाल में 122 लोग घायल हुए. जिसमें बग्वाल खेलने वाले और दर्शक भी शामिल थे. जिन्हें प्राथमिक उपचार के बाद छुट्टी दे दी गई.
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वहीं, ऐतिहासिक बग्वाल को देखने के लिए पूर्व सीएम भगत सिंह कोश्यारी, पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री और सांसद अजय टम्टा, विधायक पूरन सिंह फर्त्याल, राम सिंह कैंडा सहित सैकड़ों लोग शामिल रहे.
बता दें कि रक्षाबंधन के दिन खेले जाने वाली बग्वाल की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है. लेकिन साल 2013 में न्यायालय के आदेश के बाद पत्थरों की जगह फूल और फलों से बग्वाल खेली जाने लगी है. फलों में नाशपाती, सेब, संतरा आदि से बग्वाल खेली जाती है. लेकिन बग्वालीवीरों का मानना है कि वह आसमान में फलों को फेंकते हैं, लेकिन वह पत्थरों में तब्दील हो जाते हैं.
स्थानीय लोगों का मानना है कि पहले यहां नरबली दी जाती थी. लेकिन एक समय ऐसा आया कि चम्याल खाम के एक बुजुर्ग महिला के परिवार में एक ही पोता बच गया था, अगर उस पोते की बली दे दी जाती तो पूरा वंश ही खत्म हो जाता. जिसके चलते उस बुजुर्ग महिला ने मां बाराही की दिन रात पूजा आराधना शुरू कर दी. महिला की पूजा से प्रसन्न होकर मां बाराही ने नरबली की परंपरा को खत्म कर दिया और दूसरा विकल्प खोजा गया.
दूसरे विकल्प में चारों खामों के लोगों ने मां के आदेश के बाद बग्वाल खेलनी शुरू कर दी. इस बग्वाल में एक व्यक्ति के शरीर के बराबर का रक्त बहता है. बताया जाता है कि मां बाराही किसी का भी रक्त नहीं लेती हैं. लेकिन मां बाराही का गण कलवा बेताल यह रक्त लेता है. रक्षा बंधन के दिन धर्म व आस्था के लिए लडे़ जाने युद्ध में मां बाराही की शक्ति का बखान करना भी लोक आस्था का ही हिस्सा है. जब युद्ध चरम सीमा पर होता है तब माइक से मंदिर के आचार्य इसकी गाथा का बखूबी बखान करते हैं.