चमोली: चमोली के घाट विकासखंड स्थित सिद्धपीठ कुरुड़ मंदिर से मां नंदादेवी की डोली कैलाश के लिए विदा हुई है. हर साल आयोजित होने वाली मां नंदादेवी लोकजात यात्रा की शुरुआत मंगलवार को हुई. कई पड़ावों को पार करने के बाद मां नंदा की देव डोलियां 13 सितंबर को बैदनी कुंड और बालापाटा बुग्याल पहुंचेगी, जहां मां नंदा की पूजा-अर्चना के बाद नंदादेवी लोकजात यात्रा का समापन होगा.
बता दें कि 12 सालों में कुरुड़ मंदिर से ही नंदादेवी राजजात यात्रा का आयोजन होता है और प्रतिवर्ष नंदा देवी लोक जात यात्रा का आयोजन किया जाता है. नंदा धाम कुरुड़ मां नंदा का मायका है. जंहा नंदादेवी का प्राचीन मंदिर और दुर्गा मां की पत्थर की स्वयंभू शिलामूर्ति है.
नंदादेवी के पुजारी मंशाराम गौड़ ने बताया कि प्रतिवर्ष कुरुड़ मंदिर से नंदादेवी लोकजात का आयोजन किया जाता है. इस साल भी कोविड नियमों को मध्यनजर रखते हुए नंदा लोकजात का आयोजन किया जा रहा है. नंदा सप्तमी के दिन कैलाश में मां नंदादेवी की पूजा अर्चना के साथ लोकजात का विधिवत समापन होगा. जिसके बाद नंदा राजराजेश्वरी की देव डोली 6 माह के लिए अपने नैनिहाल थराली के देवराडा में निवास करेगी. जबकि नंदादेवी की डोली बालापाटा में लोकजात संपन्न होने के बाद सिद्धपीठ कुरुड़ मंदिर में ही श्रदालुओं को दर्शन देगी.
नंदादेवी राजजात यात्रा का महत्व
7वीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा शालिपाल ने राजधानी चांदपुर गढ़ी से देवी श्रीनंदा को 12वें वर्ष में मायके से कैलाश भेजने की परंपरा शुरू की थी. राजा कनकपाल ने इस यात्रा को भव्य रूप दिया. इस परंपरा का निर्वहन 12 वर्ष या उससे अधिक समय के अंतराल में गढ़वाल राजा के प्रतिनिधि कांसुवा गांव के राज कुंवर, नौटी गांव के राजगुरु नौटियाल ब्राह्मण सहित 12 थोकी ब्राह्मण और चौदह सयानों के सहयोग से होता है.
कथा के अनुसार, नंदा के मायके वाले नंदा को कैलाश विदा करने जाते थे और फिर वापस लौटते थे. भगवान शिव नंदा के पति हैं. यह राजजात यात्रा बारह साल में एक बार होती थी. इससे जाहिर होता है कि नंदा अपने मायके हर बारह साल में आती थी. यह परम्परा पौराणिक काल से चली आ रही है और आज भी पहाड़ के लोग इस पर्व को धूमधाम से मनाते हैं. इससे पहले यह राज जात यात्रा वर्ष 2000 में हुई थी.