चमोली: उत्तराखंड की नंदा देवी राजजात धार्मिक यात्रा ही नहीं बल्कि लोगों को प्रकृति का नजदीकी से साक्षत्कार करने का मौका भी मिलता है. देश-विदेश के लोग जिसकी पौराणिक और सांस्कृतिक विरासत को देखने के लिए हमेशा लालायित रहते हैं. यात्रा के हर पड़ाव का अपना ऐतिहासिक महत्व है. गढ़वाल की अधिष्ठात्री देवी मां नंदा की हर वर्ष ऐतिहासिक लोकजात यात्रा कुरुड़ से कैलाश की ओर भादपद्र माह में रवाना होती है. हर वर्ष यह ऐतिहासिक यात्रा लोकजात के रूप में होती है. वहीं, 12 वर्षो में एक बार वृहद यात्रा एशिया की सबसे लंबी यात्रा राजजात यात्रा के रूप में आयोजित होती है. हर वर्ष होने वाली लोकजात यात्रा कुरुड़ से विभिन्न पड़ावों को पार करते हुए वेदनी कुंड में डोली स्नान और पूजा अर्चना के बाद मां नंदा की डोली विभिन्न पड़ावों को पार करते हुए अपने ननिहाल यानी देवराड़ा पहुंचती है और 6 मास तक विराजमान होती हैं.
धार्मिक महत्व के बाद भी मां नंदा का ननिहाल अब तक यात्रा का पड़ाव नहीं बन सका है. देवराड़ा मंदिर समिति के अध्यक्ष भुवन हटवाल का कहना है कि स्थानीय लोग लंबे समय से देवराड़ा सिद्धपीठ को यात्रा पड़ाव में शामिल करने की मांग रही है. जिसे लेकर 2013 में तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा से भी बातचीत हुई थी. तत्कालीन सरकार से देवराडा को यात्रा पड़ाव में शामिल होने का आश्वासन मिला, लेकिन अभी तक योजना को अमलीजामा नहीं पहनाया गया. त्रिवेंद्र सरकार में स्थानीय ग्रामीणों को एक बार फिर से मदद की उम्मीद जगी है. ऐसे में सतपाल महाराज ग्रामीणों की मांग सुनते हुए देवराड़ा को नंदा देवी यात्रा के पड़ाव के रूप में शामिल किया जाना चाहिए. स्थानीय लोगों की मांग है कि 14 अगस्त से मां नंदा देवी की लोकजात यात्रा शुरू होने जा रही है. ऐसे में सूबे की सरकार और पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज से ग्रामीणों को आस जगी है.
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लोकजात यात्रा में वेदनी पूजा अर्चना के बाद देवी की डोली 6 मास देवराड़ा में ही विराजमान होती है. मां नंदा देवी के बधाण आगमन पर श्रद्धालुओं द्वारा हर्षोउल्लास के साथ स्वागत किया जाता है. नए अनाज का देवी को भोग लगाया जाता है. सिद्धपीठ देवराडा में विराजमान होने के बाद अगले 6 मास तक ननिहाली भक्त मंदिर में मां नंदा की पूजा-अर्चना करते हैं और 6 माह बाद नंदा देवी की डोली को मायके यानी कुरुड़ के लिए रवाना किया जाता है.
नंदादेवी राजजात यात्रा का महत्व
7वीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा शालिपाल ने राजधानी चांदपुर गढ़ी से देवी श्रीनंदा को 12वें वर्ष में मायके से कैलाश भेजने की परंपरा शुरू की थी. राजा कनकपाल ने इस यात्रा को भव्य रूप दिया. इस परंपरा का निर्वहन 12 वर्ष या उससे अधिक समय के अंतराल में गढ़वाल राजा के प्रतिनिधि कांसुवा गांव के राज कुंवर, नौटी गांव के राजगुरु नौटियाल ब्राह्मण सहित 12 थोकी ब्राह्मण और चौदह सयानों के सहयोग से होता है.