गैरसैंणः'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले', वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा' ये पंक्तियां अक्सर नेताओं के मुंह से मंचों पर सुनने को मिल जाते हैं. शहीदों के सम्मान में जहां एक ओर सरकारें और नेता बड़े-बड़े दावे और घोषणाएं करते हैं तो वहीं दूसरी ओर शहीद परिवारों के लिए की जानी वाली घोषणाएं कहीं फाइलों में दब कर रह जाती हैं. ऐसा ही स्थिति उत्तराखंड की ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण ब्लॉक के बासीसेम गांव का है. जहां कारगिल शहीद रणजीत सिंह के गांव बीते 22 सालों से सड़क की बाट जोह रहा है. सड़क न होने की वजह से ग्रामीणों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है.
दरअसल, ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण मुख्यालय से महज 8 किलोमीटर दूर आगरचट्टी से कोयलख जाने वाली सड़क को शहीद के गांव बासीसेम तक पहुंचाया जाना था, लेकिन इन 22 सालों में महज सड़क 8 किलोमीटर बड़ियारी गांव तक ही पहुंच पाई है. जिसकी हालत भी जर्जर बनी हुई है और सड़क गड्ढों में तब्दील हो चुकी है. यहां से शहीद के गांव की दूरी महज 3 किलोमीटर रह गई है, लेकिन 22 साल बीत जाने के बावजूद अभी तक विभाग न तो इस गांव में मोटर मार्ग पहुंचाने में कामयाब हो पाया है न ही आगरचट्टी से कोयलख ग्राम सभा तक खस्ताहाल सड़क को ही सुधार पाया है.
कारगिल युद्ध में सर्वोच्च बलिदान देने वाले शहीद के नाम किया गया वादा दो दशक बाद भी अमल में नहीं लाया जा सका है. वादा खिलाफी से नाराज शहीद के परिजनों की ओर से भूख हड़ताल किए जाने पर एक और वादा किया गया, लेकिन गुजरते वक्त के साथ तीन महीने के भीतर सड़क निर्माण शुरू करने के दावे भी खोखले साबित हुए. इस बीच कई परिवार गांव से पलायन कर अन्यत्र जा बसे, जबकि गांव में कुछ ही लोग बच रह गए हैं. बुजुर्ग, महिलाओं और युवाओं ने समय से समझौता कर आवाज उठाना भी बंद कर दिया है.
गौर हो कि भारत पाकिस्तान के बीच साल 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान बासीसेम के जवान लांस नायक रणजीत सिंह ने प्राणों को न्योछावर कर सर्वोच्च बलिदान दिया था. जिसके सम्मान में सरकार ने शहीद के गांव की सड़क को शहीद के नाम समर्पित कर मुख्य सड़क से जोड़ने की घोषणा की, लेकिन दो दशक बीत गए अभी तक सड़क पर काम शुरू नहीं हो सका. ग्रामीणों ने इस संबंध में हर सरकारी दफ्तरों पर गुहार लगाई, लेकिन आश्वासनों के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हुआ. वहीं, शहीद रणजीत सिंह के परिजन अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे हैं.
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नाराज ग्रामीणों ने साल 2018 में आंदोलन के माध्यम से सरकार के कानों तक आवाज पहुंचाने का प्रयास किया, जिस पर संबंधित विभाग और तत्कालीन गैरसैंण एसडीएम ने मोके पर पहुंच कर शहीद के परिजनों की भूख हड़ताल तोड़ा. हालांकि, इस बार दोबारा एक वादा किया गया, जिसे फिर से भुला दिया गया. अब शहीद के परिजनों के आंदोलन को पांच साल भी बीत गए. इस दौरान लोक निर्माण विभाग ने शहीद रणजीत सिंह मोटर मार्ग के शिलापट तो कई जगह लगा दिए, लेकिन सड़क एक इंच आगे नहीं बढ़ पाई. ऐसे में संबंधित विभाग भी असमंजस में है कि आखिर शहीद के गांव को किस सड़क से जोड़ा जाना है.
वहीं, बासीसेम, अक्षवाड़ा, डंडियाल गांव, लखेड़ी, मासो सेरा, भेड़ियाणा, तल्ली गौल समेत अन्य गांवों की सैकड़ों की आबादी आज भी सरकार और विभाग की अनदेखी के चलते मीलों पैदल चलने को मजबूर हैं. एक ओर जहां सरकार देहरादून में शहीदों के आंगन की मिट्टी लेकर सैन्य धाम बनाने जा रही है तो वहीं दूसरी ओर आज भी शहीदों के परिवारों को मूलभूत समस्याओं से दो चार होना पड़ रहा है. इसे देखकर लगता है कि शहीदों के सम्मान की हकीकत केवल भाषणों तक ही सीमित रह गई है.