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कभी बे रोकटोक तिब्बत से व्यापार करते थे अनवाल, आज अपने देश में भी गुजारा हुआ मुश्किल

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Published : Apr 8, 2023, 9:26 AM IST

Updated : Apr 8, 2023, 2:34 PM IST

रिफ्यूजी फिल्म का एक गाना है- पंछी, नदिया, पवन के झोंके, कोई सरहद ना इन्हें रोके...चीन की दादागिरी से पहले उत्तराखंड के अनवालों (भेड़ चराने वाले) का भी यही हाल था. अनवाल पड़ोसी तिब्बत तक बे रोकटोक व्यापार के लिए आते-जाते थे. चीन ने जब से तिब्बत पर कब्जा किया, स्थितियां बदल गईं. तिब्बत के साथ होने वाला व्यापार मंदा पड़ गया. अब भारत के उत्तराखंड राज्य में जो अनवाल बचे हैं, उनके लिए भी स्थितियां बेहद कठिन हैं.

sheep herders
उत्तराखंड भेड़ पालक

भेड़ पालक अनवालों की कहानी

बागेश्वर: आजाद तिब्बत के वक्त से चला आ रहा भारत का उसके साथ व्यापार आज अपने अस्तित्व को बचाने की जद्दोजहद कर रहा है. अब गिने चुने अनवाल और व्यापारी ही अपने कारोबार को बचाए हुए हैं. करीब 150 साल पुराने कारोबार से आज नई पीढ़ी कोसों दूर भाग रही है. सरकारी सुविधाओं में कमी और सरकार का सहयोग नहीं मिलने से कारोबार आज डूबने की स्थिति में है.

धीमी पड़ती अनवालों की ऐतिहासिक यात्रा: 700 भेड़ों को लेकर गौलापार (हल्द्वानी) से 23 दिन पहले चला अनवाल (भेड़ चरवाहे) का दल ‌विभिन पड़ावों को पार करते हुए शुक्रवार को बागेश्वर पहुंचा. दल को मुनस्यारी पहुंचने में करीब 10 दिन का समय और लगेगा. जुलाई तक मुनस्यारी में रहने के बाद दल जोहार के बुग्यालों की ओर प्रस्थान कर जाएगा. सितंबर के अंत में बुग्यालों से नीचे उतरकर, नवंबर में फिर से भाबर की यात्रा शुरू हो जाएगी.

ऐसी जीवन चर्या है अनवालों की:अनवालों का जीवन गर्मियों में मुनस्यारी के बुग्यालों में कटता है तो सर्दियां आते ही गौलापार के जंगलों को यह अपना ठिकाना बना लेते हैं. नवंबर में अनवालों का दल भेड़ों का झुंड लेकर मुनस्यारी से गौलापार की यात्रा पर निकल पड़ता है. बागेश्वर जिले से होकर केवल रातिरकेटी के मलक सिंह का दल ही गुजरता है. मलक सिंह पिछले 50 साल से चरवाहे का काम कर रहे हैं. उनके दल में भेड़ों के अलावा तीन भोटिया प्रजाति के कुत्ते, सामान ढोने के लिए आठ घोड़े और चार कर्मचारी शामिल रहते हैं.

संस्कृति के ध्वजवाहक अनवालों की राहों में कांटे ही कांटे:अनवाल मलक सिंह और पुष्कर सिंह बताते हैं कि रास्ते में अराजक तत्वों के साथ वन कर्मी भी उनके लिए परेशानी खड़ी करते हैं. जंगल के जिन स्थानों पर वह दशकों से अपना पड़ाव बनाते आए हैं, वहां रुकने पर वन विभाग के कर्मचारी धमकाने लगते हैं और परमिट मांगते हैं. एक ओर सरकार भेड़, बकरी पालन को बढ़ावा देने की बात करती है, लेकिन सबसे बड़े भेड़ पालकों को सरकारी योजनाओं का लाभ तक नहीं मिल पाता है. सुरक्षा और सुविधाएं नहीं मिलने से नई पीढ़ी इस काम से मुंह मोड़ने लगी है.
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भेड़ पालन से दूर हो रही नई पीढ़ी:वहीं जोहार समुदाय से जुड़े प्रयाग सिंह ने बताया कि कुछ अनवाल आज भी हमारी संस्कृति को बचाए हुए हैं. भारत तिब्बत व्यापार के समय मवेशियों से ही मुख्य व्यापार था. आज आधुनिकता की दौड़ में काफी बदलाव हो गया है. इनका जीवन खानाबदोश का जीवन रहा है. आमजन से लेकर वन विभाग और वन पंचायत को भी इनका सहयोग करना होगा. इनके कार्य को सम्मान देने की जरूरत है.

प्रयाग सिंह ने अनवालों का किया सम्मान:वहीं प्रयाग सिंह के द्वारा अपनी माता की स्मृति में सभी अनवालों को पहाड़ी टोपी और इलेक्ट्रिक लालटेन आदि देकर उनका सम्मान भी किया गया. उन्होंने कहा कि सभी को इनको सम्मान देने की जरूरत है, जिससे अपनी सदियों पुरानी संस्कृति को हम बचा सकते हैं.

Last Updated : Apr 8, 2023, 2:34 PM IST

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