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अंतरराष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस: महिलाओं के दर्द से बेखबर 'सरकार','पहाड़' ढोने के लिए अभिशप्त महिलाएं

महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के लिए सरकारें भले ही आजादी के बाद से लगातार प्रयासरत रही हो, सरकारी नौकरियों और पंचायतों में आरक्षण लागू कर महिला सशक्तीकरण के तमाम दावे सरकारों द्वारा किए गए हो , लेकिन ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं के जीवन स्तर में अभी तक कोई सुधार नहीं हो पाया है.

अंतरराष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस विशेष.

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Published : Oct 15, 2019, 4:15 PM IST

Updated : Oct 15, 2019, 5:55 PM IST

अल्मोड़ा:उत्तराखंड में आज पूरा पहाड़ी क्षेत्र पलायन का दंश झेलने को मजबूर है. बचे हुए पहाड़ के अस्तित्व को बनाए रखने में यहां की महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है.पहाड़ों में महिलाएं ग्रामीण क्षेत्रों की धुरी हैं. महिलाएं पर घर की जिम्मेदारी संभालने से लेकर परिवार की आर्थिकी तक संभालने का जिम्मा होता है. कुल मिलाकर कहा जाये तो पहाड़ों में रहने वाली महिलाओं का जीवन संघर्षों से भरा होता है. वे हर दिन एक नई लड़ाई लड़ती हैं.

अंतरराष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस

पहाड़ी समाज में महिलाओं की भूमिका हमेशा ही पुरुषों से अधिक महत्वपूर्ण रही है. खेतों में कमरतोड़ मेहनत, पीठ पर लकड़ी घास के बोझ को पीठ पर लादकर लाना, घरों में बच्चों का लालन-पालन, पूरे परिवार की चिंता में अपने को समर्पित कर देना लगभग हर पहाड़ी महिला का यही नियमित और बेरहम जीवन चक्र है. आज भी पहाड़ की नारी की जिंदगी पहाड़ से कम नहीं.

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महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के लिए सरकारें भले ही आजादी के बाद से लगातार प्रयासरत रही हो, सरकारी नौकरियों और पंचायतों में आरक्षण लागू कर महिला सशक्तीकरण के तमाम दावे सरकारों द्वारा किए गए हो , लेकिन ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं के जीवन स्तर में अभी तक कोई सुधार नहीं हो पाया है. ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं का जीवन आज भी काम के बोझ तले दबा हुआ है. ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली महिलाऐं सुबह से देर रात तक काम में जुटी रहती हैं. घर की देखभाल, मवेशियों के लिए चारे, पानी की व्यवस्था, घर के लिए लकड़ी का इंतजाम से लेकर कृषि कार्य यहां के महिलाओं के ही जिम्मे है. जिन्हें पूरा करते करते महिलाएं खुद उनमें ही रच बस जाती हैं.

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धौलादेवी विकासखण्ड के बमनस्वाल गांव की रहने वाली महिला गीता कहती हैं कि ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं की जिंदगी ही मेहनतकश जिंदगी बन चुकी है. उनका पूरा जीवन ही काम के बोझ तले दबा हुआ है. इन दिनों पहाड़ों में अश्विन के माह में जानवरों के खाने के लिए घास की कटाई चल रही है. वह कहती हैं इसके लिए वह सुबह से लेकर देर शाम तक कड़ी धूप में घास काटती हैं. पहाड़ की जिंदगी में संघर्ष ही संघर्ष है. गीता कहती हैं कि सरकारों द्वारा महिलाओं के जीवन स्तर को उठाने के लिए तमाम योजनाऐं चलाई गई हैं लेकिन उन जैसी तमाम ग्रामीण महिलाओं को इसका आज तक कोई लाभ नहीं मिला है.

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वहीं, सामाजिक कार्यकर्ता एसके तिवारी कहते हैं कि पहाड़ की महिलाओं का पूरा जीवन ही आदिकाल से संघर्षों के बीच गुजरा है. उनके संघर्ष के बारे बताना सूरज को दिया दिखाने जैसा है. वे बताते हैं कि पहाड़ की महिलाऐं घर के कामों तक ही सीमित न रहकर सामाजिक क्रियाकलापों में भी बढ़ चढ़कर हिस्सेदारी करती हैं. उत्तराखण्ड में तमाम बड़े आन्दोलनों में महिलाओं की सक्रिय भूमिका इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. चाहे वो राज्य आंदोलन की बात हो या फिर चिपको आन्दोलन हो या फिर शराब विरोधी आन्दोलन सभी में महिलाओं ने नये आयाम स्थापित किये हैं.जिसमें नारी शक्ति की झलक साफ दिखती है.

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एक और सामाजिक कार्यकर्ता पूरन रौतेला का कहना है कि पहाड़ की नारी की पीड़ा कोई नहीं समझता है. पहाड़ की नारी हमेशा से ही वीर नारियों में शुमार होती है लोगों को उनकी संघर्ष की गाथाएं सुनाई और बताई जाती हैं. लेकिन उनके हितों के लिए काम नहीं किये जाते. सरकारें और दुनियाभर की समाजसेवी संस्थाऐं लगातार उनके अधिकारों और हितों के लिए तमाम मंचों से आवाजें तो उठाते हैं लेकिन बावजूद इसके हालात जस के तस हैं.

Last Updated : Oct 15, 2019, 5:55 PM IST

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