द्वाराहाट: अल्मोड़ा में कभी एक दौर ऐसा भी था जब दोहरी-तिहरी घुघुतों की माला पहन कर बच्चे, वृद्ध और महिलाएं कौवोंं को बुलाकर उत्तरायणी का स्वागत किया करते थे.आज धीरे-धीरे ये परंपरा लुप्त होती जा रही है. पलायन और समय के अभाव के कारण लोग इन पुरानी परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं. उस दौर में जिन घरों में कौवों को घुघुते खाने को मिलते थे, वहां आज ताले लटके हैं. रोजगार की तलाश में यहां से लोग ही बल्कि त्योहारों की चमक भी 'पलायन' कर चुकी है, जो कि चिंता का विषय है.
फीकी दिखी घुघुतिया पर्व की रौनक. क्या है घुघुतिया पर्व की जनश्रुति
कुमाऊं की वादियों में प्रचलित एक जनश्रुति के अनुसार कुमाऊं के चंद्रवंशी राजा कल्याण चंद्र को बागेश्वर में भगवान बागनाथ की तपस्या के बाद राज्य का एकलौता उत्तराधिकारी निर्भय चंद्र प्राप्त हुआ. जिसे रानी प्यार से घुघुती कहती थी. पर्वतीय इलाके में घुघुती एक पक्षी को कहा जाता है . राजा का यह पुत्र भी एक पक्षी की तरह ही राजा की आंखों का तारा था. उस बच्चे को कौवे के साथ विशेष लगाव था. जब भी बच्चे को खाना दिया जाता था, तब कौवे उसके आस-पास ही रहते थे.
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एक बार राजा के मंत्री ने षड्यंत्र कर राज्य प्राप्त करने की नीयत से घुघुती का अपहरण कर लिया. वह उसे जंगल में फेंक आया. जहां उसके मित्र रहे कौवों ने उसकी मदद की. इधर, राजमहल से बच्चे के अपहरण से राजा-रानी बहुत परेशान हुए. उनका कोई भी गुप्तचर घुघुती का पता नहीं लगा पाया. तभी रानी की नजर एक कौवे पर पड़ी, वह बार-बार उड़कर राजमहल में आ जाता था. उसी समय कौवा घुघुती के गले में पड़ी मोतियों की माला पहनकर राजमहल में आया. इससे राजा-रानी को उनके पुत्र की कुशलता का संकेत मिला. बाद में राजा-रानी कौवे का पीछा करते हुए घुघुती तक जा पहुंचे. जहां उन्होंने देखा की कौवे उसकी रक्षा में लगे हुए हैं.
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तब से ही राजा ने हर साल उत्तरायणी के दिन घुघुतिया त्योहार मनाने का फैसला लिया. जिसमें कौवों को विशेष भोग लगाने की व्यवस्था की गई. तभी से कुमाऊं में घुघुतिया त्योहार के दिन आटे में गुड़ मिलाकर पक्षी की तरह के घुघुतों के आकार के स्वादिष्ट पकवानों की माला तैयार करने और कौवों को पुकारने का रिवाज है. कौवे और पक्षियों से प्रेम करने का संदेश देने वाले इस घुघुतिया त्योहार की परंपरा आज भी कुमाऊं में जीवित है.