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रुड़की के 540 साल के बरगद से मिलिए, अंग्रेजों ने दी थी हजारों सेनानियों को फांसी

आज हम आजादी की प्लेटिनम जुबली मना रहे हैं. अंग्रेजों की 200 साल से ज्यादा की गुलामी के लिए आजादी की लंबी लड़ाई लड़ी गई. हजारों-लाखों क्रांतिकारियों ने आजादी के लिए शहादत दी. रुड़की का 540 साल पुराना बरगद का पेड़ आजादी की लड़ाई के विभिन्न पड़ावों का गवाह है तो इसी बरगद पर सैकड़ों क्रांतिकारियों को फांसी पर लटकाया गया था.

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बरगद का पेड़

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Published : Aug 15, 2021, 7:58 AM IST

रुड़की: 1857 की आजादी की जंग को पहला स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है. ये क्रांति हालांकि सफल नहीं रही, लेकिन हजारों क्रांतिकारियों ने देश के लिए हंसते-हंसते अपनी जान कुर्बान कर दी थी. क्रांति की इस ज्वाला से रुड़की भी अछूती नहीं रही थी. यहां के किसानों व ग्रामीणों ने अंग्रेजी हुकूमत का बड़ा प्रतिवाद किया था. परिणाम स्वरूप सैकड़ों लोगों को यहां स्थित एक विशाल बरगद पर लटका कर फांसी दे दी गई थी. आजादी की शानदार विरासत को समेटे यह बूढ़ा बरगद आज भी पूरी शान के साथ खड़ा है.

स्वतंत्रता के गवाह रहे इस बरगद के स्थल पर अब एक शहीद स्मारक बन चुका है. ये शहीद स्थल रुड़की वासियों के अदम्य साहस और देश प्रेम की कहानी बयां करता है. यह विशाल वट वृक्ष रुड़की के सुनहरा रोड पर स्थित है.

आजादी की लड़ाई का गवाह बरगद

बताया जाता है कि सन 1857 में जब स्थानीय किसानों, ग्रामीणों और गुर्जरों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष का झंडा बुलंद किया, तो अंग्रेजों के हाथ पांव फूल गए. इस दौरान बहुत सारे अंग्रेजों को मौत के घाट भी उतार दिया गया था. आजादी के मतवालों को सबक सिखाने के लिए तब अंग्रेजों ने इलाके में कत्लेआम का तांडव मचाया था. उन सत्य घटनाओं का मूक गवाह ये वट वृक्ष है. ग्राम मतलबपुर व रामपुर से निर्दोषों को पकड़कर भी इस वट वृक्ष पर फांसी पर लटकाया गया था.

जानकारों के मुताबिक 10 मई 1857 को एक ही दिन में 100 से ज्यादा क्रांतिकारियों को इस वट वृक्ष पर लटका कर फांसी दी गई थी. इस दिन को हर साल स्थानीय लोग यहां शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए बड़ी संख्या में जुटते हैं. बताया जाता है कि सहारनपुर एवं रुड़की में ब्रिटिश छावनी होने के कारण यह जरूरी था कि इस जगह पर शांति रहे. ताकि विद्रोह की हालत में सेना अन्य स्थानों पर आसानी से पहुंच सके. जन आंदोलन को कुचलने के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने इसलिए भी सैकड़ों देशभक्तों को फांसी पर लटका कर शांति कायम करने की कोशिश की. हालांकि वह अपने इन मंसूबों में कभी कामयाब नहीं हो सके.

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स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय हकीम मोहम्मद यासीन के बेटे डॉक्टर मोहम्मद मतीन बताते हैं कि अपने पिता से उन्होंने अंग्रेजी जुल्म और देशवासियों के बलिदान की गाथा सुनी. ये आज भी उनके मन में रह-रह कर उनको इन घटनाओं की याद ताजा करती है.

वह बताते हैं कि स्थानीय निवासी स्वर्गीय रवि मोहन मंगल के दादा स्वर्गीय ललिता प्रसाद ने सन 1910 में इस वट वृक्ष के आसपास की जमीन को खरीद कर इसे आबाद किया था. उस दौरान एक कमेटी का गठन भी किया गया था.

शहीदी यादगार कमेटी के अध्यक्ष डॉ. मोहम्मद मतीन बताते हैं कि वट वृक्ष के नीचे शहीद हुए आजादी के दीवानों की याद में 10 मई 1957 को स्वतंत्र भारत में पहली बार विशाल सभा तत्कालीन एसडीएम बीएस जुमेल की अध्यक्षता में हुई थी. इसमें शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की गई. उसी दौरान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हकीम मोहम्मद यासीन की अध्यक्षता में शहीद यादगार कमेटी का गठन किया गया था.

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स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हकीम मोहम्मद यासीन के बेटे डॉक्टर मोहम्मद मतीन बताते हैं कि यह वट वृक्ष आजादी का प्रतीक है. लेकिन बदलते दौर में यह वट वृक्ष राजनीति की भेंट चढ़ता जा रहा है. राजनीतिक दलों के नेता श्रद्धांजलि के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेकते हैं. उन्होंने बताया वह सच्चे दिल से उन शहीदों को याद करने के लिए पहुंचते थे, लेकिन इसमें भी राजनीति होनी शुरू हो गयी. वहीं उन्होंने बताया कि गणतंत्रता दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर भी यहां श्रद्धांजलि कार्यक्रम होना चाहिए. देश की आजादी के लिए कुर्बान हुए शहीदों को इन दिनों में भी याद करना चाहिए.

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