देहरादून: 'बना के मिट्टी के दीये मैनें एक आस पाली है, मेरी मेहनत भी खरीद लो लोगों क्योंकि मेरे घर भी दीपावली है'... ये शब्द देहरादून की कुम्हार मंडी में रहने वाले कुम्हारों के हैं, जो हर साल दीपावली का इंतजार करते हैं. यहां के कुम्हार दीपावली में ढे़र सारे सपने देखते हैं और उन्हीं सपनों को पूरा करने के लिए वे जी तोड़ मेहनत से मिट्टी के दीयों को बनाते हैं, लेकिन बाजार में सस्ते चाइनीज दीयों और अन्य सजावटी सामानों के कारण उनकी ये उम्मीदें धुंधली हो जाती हैं. इसके अलावा सरकार और प्रशासन की बेरुखी कुम्हार की रही सही उम्मीदों पर पानी फेर देते हैं.
देहरादून की कुम्हार मंडी में रहने वाले सैकड़ों परिवारों को बड़ी बेसब्री से दीपावली का इंतजार रहता है. उन्हें उम्मीद रहती है कि इस दीपावली में बेचे गये दीयों और बर्तनों से अच्छे पैसे कमा लेंगे. जिससे वे बेटी की शादी, बच्चों की फीस और घर की रंगाई पुताई कर सकेंगे. इसके अलावा कई ऐसे सपने होते हैं जो वे अपनी आंखों में लिए दीपावली का इंतजार करते हैं, लेकिन ये दीपावली इन कुम्हारों के लिए उदासी के सिवा और कुछ नहीं लाई है. सरकार और स्थानीय प्रशासन की नीतियां इन कुम्हारों के सपनों पर भारी पड़ रही हैं. ईटीवी भारत ने देहरादून की कुम्हार मंडी में जाकर वहां के लोगों की समस्याओं को जानने की कोशिश की. साथ ही हमने कोशिश की कि इन मजबूर कुम्हारों की आवाज को सरकार और प्रशासन तक पहुंचाया जाय. जिससे ये लोग भी दीपावली मना सके.
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चाइनीज आइटम ने बाजार पर कब्जा करके कुम्हारों के काम को खत्म कर दिया है. जिसके कारण इससे जुड़े हुए लोग बेहद मायूस हैं. देहरादून की कुम्हार मंडी में कभी 200 से ज्यादा परिवार मिट्टी के दीपक, मूर्तियां और घड़े बनाने का काम करते थे. कहा जाता है कि उत्तराखंड के गढ़वाल में इस गली से ही बनाए हुए दीपों से दीपावली मनाई जाती थी. माणा से लेकर हरिद्वार तक इस कुम्हार मंडी का सामान जाता था. जैसे-जैसे चाइनीज आइटम ने बाजार में अपने पैर पसारे वैसे वैसे ही यहां के लोगों के हाथों से रोजगार छीनने लगा, जिसके कारण अब ये परिवार दूसरा छोटा मोटा कारोबार करके अपने परिवार का गुजर बसर कर रहे हैं.
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ऐसा नहीं है कि यहां रहने वाले सभी कुम्हार परिवारों ने ये काम छोड़ दिया. यहां अभी भी कई परिवार ऐसे हैं जो कि बरसों से चली आ रही परंपरा को निभाते हुए दीये, मिट्टी के बर्तन आदि बनाते हैं. हालांकि यहां के कुम्हारों का कहना है कि अब उनके बनाये बर्तनों और सामानों में ग्राहक दिलचस्पी नहीं दिखाते. जिसके कारण सामान बनाने में लगने वाली लागत भी बमुश्किल ही निकल पाती है. वहीं कुम्हारों का कहना है कि अगर सरकार और स्थानीय प्रशासन का सहयोग मिल जाये तो उनके द्वारा बनाये गये दीयों और अन्य मिट्टी के सामानों को बाहर भेजा जा सकता है. जिससे उन्हें आमदनी तो होगी ही साथ ही प्रदेश सरकार का राजस्व भी बढ़ेगा.