हैदराबाद/देहरादून: आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वनवासियों के साथ हुए अन्याय से उन्हें मुक्ति दिलाने और जंगल पर उनके अधिकारों को मान्यता देने के लिए संसद ने दिसम्बर, 2006 में अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून पास कर दिया था. एक लम्बी अवधि के बाद अंतत: केन्द्र सरकार ने इसे 1 जनवरी 2008 को नोटिफाई करके जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू कर दिया. इसके बावजूद ट्राइबल्स को उनके अधिकार नहीं मिल पाए.
मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है. एक से डेढ़ महीने में सर्वोच्च अदालत में इस पर सुनवाई होगी. ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क ने देशभर के ट्राइबल्स और उनकी आवाज उठाने वालों को हैदराबाद में एक मंच पर इकट्ठा किया. सुप्रीम कोर्ट में होने जा रही सुनवाई को देखते हुए सोशल वेलफेयर्स से जुड़े लोग अपनी पुख्ता तैयारी में लगे हैं.
वनवासियों को उनके अधिकार मिलें और सुप्रीम कोर्ट में मामले को मजबूती से रखा जाए इसके लिए तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क ने सम्मेलन आयोजित किया. सम्मेलन में देश भर के आदिवासियों, वनवासियों के प्रतिनिधि और उन्हें उनके अधिकार दिलाने को उत्सुक सामाजिक कार्यकर्ता और कानूनविद् शामिल हुए. दो दिवसीय कार्यशाला में वनाधिकार कानून सही से क्रियान्वित हो, इस पर चर्चा की गई.
ये भी पढ़ें: मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जीने को मजबूर वन गुर्जर, विस्थापन की आस में पथराई आंखें
एफआरए का भारत में इंप्लीमेंटेशन सिर्फ 10 फीसदी: कार्यशाला को लीड करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गौंजाल्विस ने कहा कि हमने फॉरेस्ट राइट्स एक्ट का नेशनल कंवेंशन बुलाया है. गौंजाल्विस ने चिंता जताते हुए कहा कि एफआरए का भारत में इंप्लीमेंटेशन सिर्फ 10 फीसदी है. कानून के अनुसार प्रत्येक वनवासी को जंगल में पट्टा मिलना चाहिए था. कम्यूनिटी फॉरेस्ट राइट भी होना चाहिए था.