देहरादून: दुनिया भर के क्लाइमेट में हो रहा बदलाव एक गंभीर समस्या बनती जा रही है. हालांकि, क्लाइमेट चेंज को लेकर वैज्ञानिक लगातार अपने तर्क दे रहे हैं. बावजूद इसके क्लाइमेट चेंज को रोकने के लिए कोई भी पहल कारागार साबित नहीं हो पाई है. वहीं, क्लाइमेट चेंज होने में ग्रीन हाउस गैसों के बाद ब्लैक कार्बन बड़ी भूमिका निभा रहा है. जिससे न सिर्फ जलवायु परिवर्तन की समस्या उत्पन्न हो रही है, बल्कि पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाने वाले जड़ी-बूटियों और वनस्पतियों को तो नुकसान हो रहा है. इसके साथ ही इसका सीधा असर ग्लेशियर पर भी पड़ रहा है.
वाडिया के वैज्ञानिकों द्वारा की गई रिसर्च के अनुसार ब्लैक कार्बन की वजह से ग्लेशियर रेखा पीछे की ओर खिसक रही है. क्या है ब्लैक कार्बन, ब्लैक कार्बन से किस तरह ग्लेशियर को हो रहा है नुकसान. कितने समय तक वातावरण में मौजूद रहता है ब्लैक कार्बन. ब्लैक कार्बन को नियंत्रित करने के क्या है उपाय? देखिए ईटीवी भारत की खास रिपोर्ट...
हिमालयी क्षेत्रों में मौजूद ग्लेशियर मानव जीवन समेत जीव जंतुओं के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है. क्योंकि, यह ग्लेशियर एक तरह से रिजर्व वाटर है, जो नदियों को जीवित रखने में अहम भूमिका निभाता है. हालांकि, ग्लेशियर का पिघलना और ग्लेशियर का बढ़ना, यह एक नेचुरल प्रक्रिया है. लेकिन इससे अलग ग्लेशियरों के मेल्ट होने के भी कई कारण भी हैं, जिसमें मुख्य वजह क्लाइमेट चेंज है. वही, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी द्वारा किए गए रिसर्च के अनुसार ब्लैक कार्बन की वजह से ग्लेशियर पीछे की ओर खिसक रहे हैं, जो एक बहुत गंभीर समस्या है.
क्या है ब्लैक कार्बन: जीवाश्म ईंधन, लकड़ी और अन्य ईंधन के अपूर्ण दहन से उत्सर्जित कणिकीय पदार्थ (Particulate Matter) ब्लैक कार्बन कहलाता है. ब्लैक कार्बन वातावरण में आने के साथ ही वायुमंडल में तापमान में बृद्धि कर देता है. हालांकि, ब्लैक कार्बन, वायुमंडल में उत्सर्जन के कुछ सप्ताह तक स्थिर रहता है. यानी, यह एक अल्पकालिक जलवायु प्रदूषक है. जो कुछ ही दिनों में जलवायु परिवर्तन, ग्लेशियर मेल्टिंग, कृषि और मानव के स्वास्थ्य पर किसी न किसी रूप में असर डालता है. क्योंकि ब्लैक कार्बन, सूर्य से आने वाली ऊर्जा को अवशोषित कर लेता है, जिसके चलते वातावरण के तापमान में बृद्धि हो जाती है.
ब्लैक कार्बन का ग्लेशियर पर असर: ब्लैक कार्बन, बादल निर्माण के साथ-साथ क्षेत्रीय परिसंचरण और वर्षा को भी प्रभावित करता है. इसके साथ ही बर्फ और ग्लेशियर की सतह पर ब्लैक कार्बन निक्षेपित (बैठने) होने पर, ब्लैक कार्बन और सह-उत्सर्जित कण, एल्बिडो (सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करने की क्षमता) के प्रभाव को कम कर देता है. जिससे बर्फ और ग्लेशियर के सतह के तापमान में वृद्धि हो जाती है. जिसके कारण हिमालई क्षेत्रों में मौजूद ग्लेशियर और ग्लेशियर क्षेत्रों के बर्फ पिघलने लगती है. यही नहीं जब ब्लैक कार्बन उच्च हिमालई क्षेत्रों तक पहुंचता है तो ऐसे में वहां गर्मी इतनी बढ़ जाती है कि धीरे-धीरे वहां मौजूद ग्लेशियर की रेखा ऊपर की ओर खिसकने लगती है. इसके साथ ही उच्च हिमालई क्षेत्रों में पाए जाने वाली अमूल्य जड़ी-बूटियां भी विलुप्त होने लग जाती हैं.
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ब्लैक कार्बन की वजह से हो सकती हैं तमाम बीमारियां: ब्लैक कार्बन और इसके सह-प्रदूषक सूक्ष्म कणिकीय पदार्थ (PM2.5) वायु प्रदूषण के प्रमुख घटक हैं. यह ना सिर्फ ग्लेशियर, बर्फ, वनस्पति समेत जड़ी-बूटियों को प्रभावित करता है बल्कि किसी ना किसी रूप में मानव जीवन के स्वास्थ्य पर भी बड़ा असर डालता है. ब्लैक कार्बन की वजह से हृदय और फेफड़े के रोग के साथ ही स्ट्रोक, हार्टअटैक, सांस संबंधी समस्या के साथ ही तमाम बीमारी होने के आसार रहते हैं. यानी कुल मिलाकर देखें तो अगर ब्लैक कार्बन मानव शरीर के अंदर जाता है तो वह कई तरह की बीमारियां उत्पन्न कर सकता है.
ब्लैक कार्बन को नियंत्रित करने के उपाय: मुख्य रूप से देखें तो ब्लैक कार्बन लकड़ी जलाने, जंगलों में आग लगने, इंडस्ट्री से निकलने वाला धुंआ, ईट भट्ठों, खेतों में पराली जलाने, कूड़ा करकट को जलाने, वाहनों से निकलने वाला धुंआ आदि से उत्पन्न होता है. ऐसे में खाना बनाने के लिए लकड़ियों की जगह बायोमास स्टोव, एलपीजी का इस्तेमाल करना चाहिए. इसके अतिरिक्त उद्योगों में सॉफ्ट ईट भट्टों का प्रयोग किया जाना चाहिए. कार्बन उत्सर्जन मुक्त बसों और ट्रकों को भी अनुमति देनी चाहिए. खेतों में पराली जलाए जाने की परंपरा पर प्रतिबंध लगाना चाहिए. नगरपालिका द्वारा अवशिष्ट को खुले में जलाए जाने पर प्रतिबंध लगान चाहिए. जंगलों में आग लगने की घटना को रोकने के साथ ही वैज्ञानिकों द्वारा समय-समय पर तमाम सुझाव भी दिए जाते रहे हैं, जिन्हें मुख्य रूप से पालन करने की आवश्यकता है.