हल्द्वानी: गांधी टोपी देवभूमि के लोगों की पहचान है. हर उत्तराखंड वासियों के लिए इस टोपी का खास महत्व है. जिसे वे सुबह उठते ही अपने सिर पर पहनना नहीं भूलते. अगर आप देवभूमि आए हैं तो आपने लोगों को टोपी पहनते हुए जरूर देखा होगा. जिसका इतिहास 18वीं सदी से भी पुराना माना जाता है.
गांधी टोपी से रही है कई नेताओं की पहचान.. कई राजनेताओं की पहचान गांधी टोपी रही है, भले ही वे महात्मा गांधी हों, पंडित नेहरू या भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत या हेमवती नंदन बहुगुणा. इनके अलावा भी कई नेता हैं जो गांधी टोपी के शौकीन थे. उत्तराखंड में समय के साथ अब कुछेक बुजुर्ग ही टोपी पहने दिखाई देते हैं. कुछ खास मौके जैसे शादी-विवाह, जनेऊ संस्कार या पूजा-पाठ तक ही टोपी का दायरा सिमट गया है. वहीं पड़ोसी राज्य हिमाचल में कमोवेश एक जैसी ही स्थिति है. वहीं उत्तराखंड में दो मंडल पढ़ते हैं एक कुमाऊं, दूसरा गढ़वाल मंडल. टोपी पहने की ये परंपरा दोनों जगह समान है. वहीं धर्म और शास्त्रों की बात करें तों धर्माचार्य इसके बारे में कुछ और ही कहते हैं. शास्त्रों के अनुसार सफेद टोपी सदाचार शांति सुख- समृद्धि का प्रतीक मानी जाती है. लाल टोपी खतरे को दर्शाती है. इसलिए लाल टोपी का महत्व अलग हुआ करता है. पीली टोपी हरियाली का प्रतीक है. इसलिए पीली टोपी के महत्व को बसंत से जोड़कर देखा जाता है. शास्त्रों के अनुसार काली टोपी विराध का प्रतीक होती है.धर्माचार्यों का मत है कि कलयुग में काली टोपी का सबसे ज्यादा प्रचलन होता है. वहीं बात करें इसके अस्तित्व को बचाए रखने की तो कुछ राजनेताओं ने भले ही सत्ता पर काबिज होने के लिए इसे पहनते हो लेकिन टोपी को पहचान दिलाने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं किया. जिससे इसका क्रेज अब घटता जा रहा है. आज जरूरत इस संस्कृति रूपी गांधी टोपी को बढ़ावा देने की है, जिससे आने वाली पीढ़ी भी इससे रूबरू हो सकें.