वाराणसी की रोली सिंह की दर्दभरी कहानी पर संवाददाता प्रतिमा तिवारी की खास रिपोर्ट वाराणसी: जिसे जीने की चाह होती है, वह हर परिस्थिति को अपने अनुकूल बना लेता है. परिस्थितियों के सामने झुककर रहने वाला अकसर हार जाता है और जब जिद हो जीत जाने की तो सारे बंधन तोड़कर इंसान अपने सपने पूरा करने के लिए आगे बढ़ता है. कुछ ऐसी ही कहानी है वाराणसी की रहने वाली रोली की. जो जमींदार परिवार की बेटी और बड़े राजनीतिक घराने की बहू हैं.
मगर परिस्थितियां ऐसी रहीं कि रोली ने इन दोनों परिवारों को छोड़कर खुद को जिंदा रखने का काम शुरू कर दिया. घर में बंद रहकर घुटने के बजाय उन्होंने अपनी जैसी महिलाओं का हाथ थामा. उन्हें अपने साथ आगे लेकर बढ़ीं. 11 बच्चों के साथ पाठशाला शुरू की. उसमें आज 100 से अधिक बच्चे पढ़ रहे हैं. पांच बच्चों को हायर एजुकेशन में मदद कर रही हैं. अब तो विदेशी भी यहां पढ़ाने आते हैं.
गंगा घाट के किनारे चबूतरे पर लगती है क्लास रोली की कहानी हर उस महिला की कहानी है जो कभी न कभी इस समाज से हार मान लेती है. जो यह सोच लेती है कि हिंसा सहना और समाज के दबाव में रहकर उसकी नियति बन चुकी है. एक वक्त था जब रोली घर में ऐसी कैद हुईं कि पांच साल तक उन्होंने किसी से बात तक नहीं की. इन पांच सालों में उन्होंने आसमान तक नहीं देखा. जरा सोचिए वो घुटन वो दर्द रोली के लिए कैसा रहा होगा. मगर आज रोली अपनी संस्था के साथ बच्चों का सहारा हैं.
बच्चों को पढ़ाने में कई और महिलाओं ने भी दिलचस्पी दिखाई है. घाट की सीढ़ियों पर बैठना आसान नहीं थाः'मेरे दो परिवार हैं. एक राजनीतिक घराना है, जबकि दूसरा जमींदार परिवार है. दोनों परिवारों से निकलना और इस घाट की सीढ़ी पर बैठना बिल्कुल आसान नहीं था. वह भी तलाकशुदा होने के बाद. इस दौरान बहुत बड़ी-बड़ी बातें हुईं. मेरे लिए उस परिवार से निकलना ही एक चैलेंज था. मगर मुझमें जिंदा रहने की एक जिद थी. बतकही करने की एक जिद थी. महिलाओं के सुनने की जिद थी. क्योंकि बंद कमरे में बहुत कुछ देख चुकी थी. अगर मैं वहीं रुक जाती तो शायद ये कारवां आगे नहीं बढ़ता. घाट की सीढ़ियों पर बैठकर जब मैं महिलाओं का दर्द सुनती हूं तो मैं कहीं न कहीं उनसे जुड़ाव महसूस करती हूं.' रूंधे गले से अपनी कहानी बताती हुई रोली घाट की सीढ़ियों पर हमारे साथ बैठी हुई थीं.
गंगा किनारे सपनों की पाठशाला में पढ़ाई करते बच्चे. 11 बच्चों से शुरू हुआ कारवां, 114 बच्चे कर रहे पढ़ाईः रोली बताती हैं, 'कोरोना काल के आस-पास अपनी संस्था 'खुला आसमान' और 'अंकुर पाठशाला' को शुरू किया था. आज तीन साल हो चुके हैं. इस दौरान बहुत कुछ सुनना और सहना पड़ा. हमारी पाठशाला में मलिन, नाविक आदि कम्युनिटी के बच्चों को पढ़ाने के लिए जोड़ा जाने लगा. मेरी संस्था में बच्चों को पढ़ाने वाली महिलाएं भी घरेलू हिंसा का शिकार हैं. उनके पीछे एक कहानी है. वहीं जिन बच्चों को पाठशाला और संस्था से जोड़ा गया. उन्हें यहां तक लाने के लिए समाज के बहुत से बंधनों को तोड़ना पड़ा. लोगों को समझाना पड़ा. 11 बच्चों के साथ शुरू हुई इस संस्था में आज 104 बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं. 5 बच्चों को हायर एजुकेशन में मदद की जा रही है. इनमें से कुछ बच्चियां हैं.'
पांच साल तक किसी से बात नहीं की, आसमान नहीं देखाः रोली जब बोल रही थीं तो उनकी आवाज में दर्द साफ छलक रहा था. वह कहती हैं, 'जब महिलाओं का दर्द सुनती हूं तो मुझे याद आता है कि ऐसा हादसा मेरे साथ हुआ था. बहुत आसान होता है ये कह देना कि कोर्ट, कचहरी, प्रशासन है. मगर सब कुछ नहीं मिलता है. इस दर्द से निकलने के लिए मैं दूसरों का सहारा बनने निकल पड़ी. आज बच्चों के लिए खुला आसमान संस्था के अंतर्गत बच्चों का ध्यान रखती हूं. नित्या निदान सेवा, नारायण सेवा का काम करती हूं. महिलाओं की बतकही करती हूं. बच्चों की बतकही करती हूं. सबसे बड़ी बात है कि अब मैं सुनती हूं. मुझे याद है कि जब मैं बंद कमरे में थी तो मैं 5 साल तक बोली ही नहीं थी. मैंने 5 साल तक बाहर का आसमान तक नहीं देखा था. अब मैं हर जगह खुलकर बोलती हूं.'
आज मेरे साथ हर कोई स्वाभिमान से जीता हैः रोली कहती हैं, 'मेरे साथ जुड़ी हुई महिलाएं भी बोलती हैं और मेरे साथ जुड़े हुए बच्चे भी बोलते हैं. मेरे पास नगवा बस्ती, सामने घाट के बच्चे हैं. 11 बच्चों के साथ मैंने इसकी शुरुआत की थी. इसके साथ ही मेरे साथ स्वीपर से लेकर हर कम्युनिटी के लोग 'खुला आसमान' के नीचे स्वाभिमान से जिंदगी जीते हैं. अपना हर काम स्वाभिमान से करते हैं. जहां तक खर्च की बात आती है तो इसकी भी एक कहानी है. जब मैं कॉलेज में थी तब मेरे पिताजी एक सपना देखते थे अधिकारी बनने का. दूसरा सपना था इंडिया के एक बेस्ट कोचिंग में मैं जाऊं. वे चाहते थे कि रोली एक बेस्ट अधिकारी बन जाए. आज वैट क्लासेज और पिताजी का मजबूत स्तंभ है, जिसकी वजह से मैं इन बच्चों का खाना, पढाई का खर्च देख पा रही हूं.'
नर्सरी से कक्षा 11 तक की चलाई जाती हैं कक्षाएंः 'खुला आसमान संस्था में क्रिएटिव क्लाजेस चलती हैं. मार्शल आर्ट की क्लास भी चलती है. रैप म्यूजिक के साथ हर एक क्लास 'खुला आसमान' के नीचे चलता है. हमारे यहां लड़कियां मार्शल आर्ट सीखती हैं. इसके साथ ही नर्सरी से लेकर कक्षा 11 तक के बच्चों की यहां क्लासेज चलाई जाती हैं. जहां संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी सभी विषयों की पढ़ाई कराई जाती है. बच्चा जो भी पढ़ना चाहता है, जो करना चाहता है वो सारी चीजें हम लोग जोड़ते रहते हैं. जो बच्चे कक्षा 8 तक सरकारी स्कूल में पढ़ लेते हैं हमारी संस्था उनके आगे का खर्च उठाती है. जहां तक वे पढ़ना चाहते हैं संस्था उनका खर्च देखती है.' रोली आज अपनी संस्था के माध्यम ऐसे बच्चों का सहारा बन चुकी हैं.
20 से 25 लोगों की टीम, विदेशी दोस्त दे रहे साथः 'हमारे कुछ विदेशी दोस्त भी हैं जो इसमें पूरा सहयोग करते हैं. यह भी कहना आसान नहीं है मेरे लिए कि वो जो दोस्त हैं जो कहते रहे हैं कि तुम कर सकती हो. रोली को जिन लोगों ने टूटने नहीं दिया है. देश-विदेश हर जगह से लोग हैं, जो कहीं न कहीं से व्यवस्था देखते रहते हैं कि क्या चल रहा है. क्लासेज कैसी चलनी चाहिए. वे यहां पढ़ाने भी आते हैं. हमारे पास 20 से 25 लोगों की टीम है. मेरे साथ जुड़े हुए हर बच्चे के पीछे एक स्टोरी है. और, हर महिला के पीछे एक स्टोरी है.' रोली के मन में एक उम्मीद है और एक सुकून भी कि वह अपने साथ ऐसे बच्चों का जीवन भी संवार रही है. इनके साथ एक टीम है. जो रोली कल तक अकेले लड़ रही थी आज उनके साथ कई लोग कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं.'
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