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देश-विदेश में भारतीय संस्कृति को फैलाने की सोच रखते थे पंडित मालवीय : प्रो. रजनीश - professor rajneesh kumar shukla

उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में बीएचयू के पुरातन छात्रों से संवाद स्थापित करने के लिए ऑनलाइन संवाद श्रृंखला की शुरुआत की गई. वहीं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर रजनीश कुमार शुक्ल ने महामना पंडित मदन मोहन मालवीय की शिक्षा के प्रति सोच के बारे में बताया.

प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल
प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल

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Published : Jun 25, 2020, 8:59 PM IST

वाराणसी: काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पुरा छात्र प्रकोष्ठ द्वारा पुरातन छात्रों से संवाद कार्यक्रम करने के लिए ‘हम बीएचयू के लोग’ ऑनलाइन संवाद श्रृंखला की शुरुआत की गई है. इसका मूल मकसद भारत रत्न महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के उद्देश्यों को जानना है. ‘काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना का उद्देश्य’ इस पर समय का सदुपयोग करते हुए बीएचयू के पूर्व प्रोफेसर अन्य विश्वविद्यालयों के कुलपति, वर्तमान प्रोफेसर और छात्रों ने मिलकर एक चर्चा की. ऑनलाइन चर्चा में महामना के विषय में बहुत सी बातें निकल कर सामने आईं. विद्वानों ने एक आदर्श के रूप में इसे सबके सामने रखा. ऑनलाइन वचनों को सोशल मीडिया के माध्यम से अधिक संख्या में छात्र-छात्राओं ने भी देखा.

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालयए वर्धा के कुलपति प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल ने कहा कि महामना पंडित मदन मोहन मालवीय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के माध्यम से न सिर्फ लोगों को शिक्षित करना चाहते थे अपितु शिक्षित होने के साथ-साथ लोगों को सांस्कृतिक दृष्टि से भी संपन्न बनाना चाहते थे. वह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को भारत का सांस्कृतिक प्रतिनिधि बनाना चाहते थे, जो अपनी व्यक्तिगत कार्मिक पहचान के अलावा देश-विदेश में भारतीय संस्कृति के दूत के रूप में पहचाने जाएं.

प्रो. शुक्ल ने कहा कि मेरे जैसा व्यक्ति महामना की समीक्षा करने में सामर्थ्यवान नहीं है. मैं उनकी स्तुति ही कर सकता हूं. प्रो. शुक्ल ने कहा कि महामना का उद्देश्य महज एक विश्वविद्यालय की स्थापना करना नहीं था. उस वक्त देश में पांच विश्वविद्यालय थे. प्रयाग में स्थित इलाहाबाद विश्वविद्यालय जिसे पूरब के ऑक्सफोर्ड की संज्ञा दी जाती थी. इलाहाबाद के इतने करीब बनारस में एक विश्वविद्यालय के स्थापना की कल्पना क्यों कर रहे थे. दरअसल जब हम गौर करेंगे तो यह जान पाएंगे कि महामना काशी में भारतीय परम्पराओं और आधुनिक शिक्षण के परस्पर समन्वय वाले विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते थे. उनकी दृष्टि बहुत स्पष्ट थी. वह स्वतंत्र भारत को राह दिखलाने वाले विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते थे. एक विश्वविद्यालय, जिसके स्नातक भारतीय राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान दें. उनकी दृष्टि में धर्म और संस्कृति अलग-अलग नहीं थी.

उन्होंने बताया कि वह हिन्दू विद्याओं की पुनर्स्थापना चाहते थे. संस्कृत को मुख्यधारा में लाना चाहते थे. वो पूरब और पश्चिम के ज्ञान का सम्मिश्रण चाहते थे. उनकी दृष्टि में संस्कृति का सच्चा अर्थ है भारतीयता. वो हिन्दू धर्म के सच्चे उपासक थे, लेकिन इसके अंदर आ गई कुरीतियों के आलोचक भी थे. यही कारण है जब जमनालाल बजाज ने अपने पूर्वजों द्वारा बनाए गए लक्ष्मीनारायण मंदिर को सभी जाति के लोगों के लिए खोल दिया तो वो इसकी प्रशंसा के लिए पत्र भी लिखते हैं. वह हिन्दू धर्म के सच्चे उपासक होते हुए भी रूढ़िवादी नहीं थे. इसका प्रमाण है पूना पैक्ट, जिसमें वह बाबा साहब आंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच मध्यस्थता करते हैं. आंबेडकर मालवीय के बारे में कहते हैं कि मुझे मालवीय के ऊपर विश्वास है क्योंकि उनकी वाणी और कर्म में द्वैध नहीं है. वहीं गांधी मालवीय को भारतीयता के प्रतीक पुरुष के रूप में देखते हैं.

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