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ये अवसर है या अभिशाप ! बनारस के मेयर की कुर्सी खत्म कर देती है राजनीतिक करियर - बनारस के मेयर

वाराणसी में 1995 से लेकर अब तक मेयर की कुर्सी भाजपा के ही नेता बैठे हैं. वहीं, राजनीतिक विश्लेषकों का मनना है कि मेयर के बाद नेताओं के राजनीतिक करियर में विराम लग जाता है और वे आगे नहीं बढ़ पाते हैं. आइए जानते है विशेषज्ञों की राय..

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वाराणसी नगर निगम

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Published : Apr 28, 2023, 5:59 PM IST

वाराणसी में मेयर बनने के बाद खत्म हो जाता है करियर

वाराणसीःयूं तो वाराणसी में नगर निगम के गठन के बाद 1995 से लेकर अब तक मेयर की कुर्सी पर कोई भी विपक्ष का नेता नहीं बैठ पाया है. भाजपा के ही नेता मेयर की कुर्सी पर बैठे हैं, लेकिन हैरान करने वाली बात यह है कि इस कुर्सी पर बैठने के बाद उनको कोई बड़ा पद नहीं मिल रहा है. न ही वह जनता का बाद में प्रतिनिधित्व कर सके हैं और न ही उनको पार्टी में कोई बड़ा स्थान मिला है.

बनारस में मेयर बनने के बाद उनके राजनीतिक जीवन में विराम जैसी तस्वीर देखने को मिलती है. इसकी चर्चा बनारस की गलियों से लेकर के राजनीतिक गलियारों में जोरों पर है. मेयर पद का बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश में दिनेश शर्मा के रूप में दिखता है, जहां वह एक मेयर के बाद डिप्टी सीएम बने. भारतीय जनता पार्टी ने ऐसा कदम पहली बार उठाया था, जब उत्तर प्रदेश में एक मुख्यमंत्री और दो उपमुख्यमंत्री बनाए गए थे. दूसरे केशव प्रसाद मौर्य थे.

आगे नहीं बढ़ पाता राजनीतिक करियर
इस बारे मे राजनीतिक विश्लेषक रवि प्रकाश पांडेय ने बताया कि काशी में मेयर की कुर्सी पर सबसे पहले सरोज सिंह बैठीं. फिर अमरनाथ यादव बैठे, फिर कौशलेंद्र सिंह बैठे, फिर राम गोपाल बैठे और वर्तमान में मृदुला जायसवाल हैं. ये सभी लोग जब अपना कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा करते हैं, उसके बाद इनका राजनीतिक करियर आगे नहीं बढ़ पाता. हालांकि कौशलेंद्र सिंह ने कृपा पात्र के जरीए हाल ही में भाजपा की प्रदेश कमेटी में अपना स्थान बना लिया है.

काशी में भाजपा का रहा है जनाधार
उन्होंने बताया कि एक अपेक्षा होती है कि मेयर आगे भी अपना राजनीतिक भविष्य तय करेगा. हमें लगता है कि भाजपा के प्रत्याशी के रूप में ये लोग विजयी रहे हैं. भाजपा का ऐसा जनाधार काशी में रहा है. बड़े-बड़े नेतृत्व इसमें रहे हैं. उसमें जब मेयर को संगठन नॉमिनेट करता है तो यह देखता है कि उसकी राजनीतिक छवि न हो. भाजपा में यह बेहद महत्वपूर्ण है.

आखिर क्यों जीत नहीं पाती हैं विपक्षी पार्टियां
बनारस ने जिसको अपना लिया उसे छोड़ना इतना आसान नहीं होता है. बनारस किसी को तब ही अपनाता है जब कोई बनारस की आत्मा को अपना लेता है. इसी में पीछे रह गई हैं ये विपक्षी पार्टियां. काशी की संस्कृति और यहां के आध्यात्म को हमेशा से दरकिनार किया गया, जिसकी टीस काशी के लोगों के मन में हमेशा रही है. राजनीतिक जानकार कहते हैं कि काशी के मन का सिर्फ भाजपा ही कर सकी है. संस्कृति, आध्यात्म और राष्ट्रवाद ये तीनों भाजपा लेकर चलती है.

राजनीतिक विश्लेषक रवि प्रकाश पांडेय ने बताया कि सरोज सिंह जब मेयर बनीं तो उनके पति ओम प्रकाश उत्तर प्रदेश में सिंचाई मंत्री थे. ओम प्रकाश कभी मंत्री बने, कभी विधायक बने कभी नहीं भी बने. वहीं, सरोज को एक गरिमा के पद पर जिसे हम मेयर कहते हैं. एक पॉलिटिकल बैकग्राउंड से आने के बाद सरोज मेयर की कुर्सी पर बैठीं. इसके बाद से मेयर के पद को राजनीति में लाया गया, जिसके बाद से एक ऐसा संयोग बन गया कि बनारस में जितने मेयर रहे वे कार्यकाल पूरा करने के बाद किसी बड़े पद पर नहीं गए.

पूर्वांचल ही तय करता है उत्तर प्रदेश की राजनीतिक विजय
आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल की राजनीति ही प्रदेश में किसी पार्टी की विजय सुनिश्चित करती है. पूर्वांचल पर मौजूदा सरकार का ध्यान देना इसी का उदाहरण है. कई वर्षों से सपा के खाते में रही आजमगढ़ की सीट को भाजपा ने अपने खाते में लेते हुए वहां पर सेंध लगा दी. वहीं, पीएम मोदी लगातार विजयी रहे हैं. 8 विधानसभाओं पर भाजपा लगातार परचम लहरा रही है.

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