पूर्वांचल की राजनीतिक धुरी है बनारस वाराणसीःवाराणसी को पूर्वांचल की राजनीतिक धुरी कहा जाता है. यहां की जीती हुई सीट पूरे पूर्वांचल को जीतने के समान मानी जाती है. बड़ी बात यह है कि न सिर्फ यहां की विधानसभा सीटों पर बीजेपी का कब्जा है, बल्कि नगर निकाय में मेयर की सीटों पर भी बीजेपी का शुरुआत से ही कब्जा रहा है. मेयर की सीट यहां बीजेपी का अभेद किला मानी जाती है. हैरान करने वाली बात यह है कि 2 बार सत्ता में रहे बीएसपी और सपा भी आज तक बनारस में मेयर के सीट पर जीत हासिल न कर सकी है. इस सीट पर विपक्षी दलों का सूखा रहा है. बता दें कि, 1995 में वाराणसी में नगर वाली सरकार बनी, जहां पहली मेयर सरोज सिंह बनीं. उसके बाद वर्तमान में भी बीजेपी से ही मेयर हैं. यहां हर पार्टी जीत का दम तो भर्ती है, लेकिन जीत बीजेपी के ही हाथ लगती है.
यूं तो वाराणसी शहर ही अलौकिक और आध्यात्म से भरा हुआ है. इसकी गलियों, दीवारों पर आस्था के सबूत मिल जाते हैं. यहां के लोगों का रहन-सहन यही बताता है कि वाराणसी राजनीति बाद में पहले महादेव को याद करती है. ऐसे में अगर कोई वाराणसी के विकास की बात करे तो कैसे करेगा? उसे बात करनी होगी सांस्कृतिक विरासत की, धार्मिक पुनर्जागरण की, मन्दिरों-घाटों के पुनर्उत्थान की.
काशी के लोग सांस्कृतिक और राष्ट्रीय भावना से प्रेरित
वाराणसी की राजनीति में बदलाव की बयार 2014 में आई ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वाराणसी ने अपने मेयर का चुनाव हमेशा से भाजपा के उम्मीदवार का ही किया है. ऐसा क्यों? इस पर राजनीतिक विश्लेषक प्रो रवि प्रकाश पांडेय ने बताया कि काशी में जो रुझान है वो सांस्कृतिक और राष्ट्रीय भावना से प्रेरित है. काशी को प्राचीन धार्मिक क्षेत्र के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है. धार्मिक प्रतिष्ठा और यहां के लोगों का सांस्कृतिक रुझान नागरिकों के मन-मस्तिष्क को राष्ट्रीय और सांस्कृतिक भावनाओं से ओतप्रोत रखते हैं.
संस्कृति की पुनर्स्थापना करने वाले के साथ काशी
उनका कहना है कि वाराणसी के लोगों का राष्ट्रवाद उनके राजनीतिक व्यवहार में भी झलकता है. जब भी मेयर के चुनाव हुए, उन चुनावों में काशी की जनता ने राष्ट्रीय भावना को व्यक्त करने वाले और संस्कृति की पुनर्स्थापना करने के लिए निरंतर क्रियाशील रहने वाले दल के रूप में एक विकल्प तलाशा. यानी कि वाराणसी के लोग सीधे तौर पर राजनीतिक फायदे के सौदे से हमेशा दूर ही रहे हैं. उन्हें वाराणसी के जीवटता की रक्षा से संबंध रहा है.
अब तक ये रहे बनारस के मेयर
अगर हम गौर करें तो देखेंगे कि यहां सिर्फ राष्ट्रीय पार्टी यानी कांग्रेस ही नहीं, बल्कि समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी का भी वही हाल रहा है. इनके प्रत्याशियों नेस हमेशा हार का ही मुंह देखा है. वहीं भाजपा हमेशा कुर्सी पर कब्जा करती रही है. प्रोफेसर पांडेय ने बताया कि साल 1994 में बनारस नगर निगम अस्तित्व में आया. पहले चुनाव में सरोज सिंह फिर अमरनाथ यादव, कौशलेंद्र सिंह, राम गोपाल मोहाले और अब मेयर मृदुला जायसवाल हैं.
राष्ट्रवाद, संस्कृति और धर्म की पोषक भाजपा
वाराणसी में सिर्फ भाजपा ही क्यों चुनकर मेयर की कुर्सी पर आती है. इसका भी एक सीधा सा लॉजिक है और वो है राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति. इस पर प्रो. पांडेय ने बताया कि वाराणसी के लोगों ने राजनीति में हिस्सा लिया. उन्हें अपने मेयर का चुनाव करना था, लेकिन उस व्यक्ति का जो राष्ट्रवाद और संस्कृति की रक्षा कर सके. ऐसे में उन्हें लगा कि एक दल की तुलना में भाजपा ज्यादा राष्ट्रवाद, संस्कृति और धर्म की पोषक है.
हिन्दुत्व की परंपरा के साथ चलती भाजपा
भारतीय जनता पार्टी की तुलना में जब हम कांग्रेस, सपा और बसपा को देखते हैं तो वाराणसी के लोगों की उम्मीदों के मुताबिक कितना काम किया तो ये सभी पार्टियां कहीं नहीं दिखाई देती हैं. राजनीतिक विश्लेषक के कथन का ही अगर हम विश्लेषण करें तो दो बातें सामने आती हैं. पहली राष्ट्रवाद और दूसरी काशी की संस्कृति. ऐसे में भाजपा का शुरू से यही एजेंडा ही रहा है. पुराना इतिहास देखें तो भाजपा का नारा ही हिन्दुत्व की परंपरा के साथ चलता आया है.
साल 2014 के बाद मिली वैश्विक पहचान
वहीं, साल 2014 के बाद से वाराणसी की परिस्थिति पूरी तरह से बदल चुकी है. यहां से सांसद और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी के सांस्कृतिक विकास पर बहुत ध्यान दिया है. सबसे बड़ा उदाहरण काशी विश्वनाथ धाम है, जिससे काशी को वैश्विक पहचान मिली है. काशी धार्मिक राजधानी बनी है. इसका सीधा फायदा यहां के कारोबारियों को हो रहा है. यानी कि पीएम मोदी के प्रयासों से न ही सिर्फ सांस्कृतिक विरासत का नवनिर्माण हुआ बल्कि लोगों की आय भी बढ़ी.
भाजपा की इस मजबूत छवि के आगे टिकेगा कौन?
ऐसे में हम अगर वाराणसी के पुराने चुनावी इतिहास का मिलान आज के दौर में करें तो यही पता चलता है कि एक बार फिर काशी भाजपा की तरफ जा सकती है. क्योंकि पिछले 8 साल में भाजपा की केंद्र व प्रदेश सरकार ने मिलकर काशी का अद्भुत विकास किया है, जो जगजाहिर है. इसी बीच समाजवादी पार्टी के मुखिया द्वारा रामचरितमानस जैसे विवाद पैदा करना उनके लिए घाटे का सौदा हो सकता है. बसपा इस लड़ाई में एक्टिव होने के बाद भी नजर नहीं आ रही. वहीं, कांग्रेस भाजपा की मजबूती के सामने टिक जाए ऐसी उम्मीद नहीं दिख रही.