वाराणसी:संत कृपा जिस पर होती है, वो जीवन की तमाम कठिनाइयों और परेशानियों से ऊपर उठकर जीवन जीने की कला सीख जाता है. शायद यही वजह है कि आज महान संत शिरोमणि रविदास महाराज की जयंती के मौके पर काशी यानी बनारस में उनके जन्मस्थली श्री गोवर्धन पर भक्तों की भीड़ उमड़ रही है. भक्तों की भीड़ के बीच वीआईपीज भी संत के दर पर मत्था टेकने पहुंच रहे हैं. वहीं, काशी का यह संत शिरोमणि मंदिर पंजाब की सियासत के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है और जब पंजाब में चुनाव होने हैं तो निश्चित तौर पर रविदास मंदिर में सियासी जमघट लगना लाजमी है और इसकी शुरुआत आज सुबह उस वक्त हुई जब पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी मत्था टेकने के लिए काशी स्थित रविदास मंदिर पहुंचे.
भक्ति भाव में डूबे चन्नी ने यहां पर सिर्फ दर्शन ही नहीं किए, बल्कि धर्म और आस्था के साथ उन्होंने पंजाब के उस लगभग 70% दलित वोट बैंक को साधने का भी काम किया, जिसे लेकर लगातार पंजाब में सियासी घमासान जारी है. दरअसल, बनारस धर्म और आस्था का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र माना जाता है. कबीर, तुलसी और रविदास की इस पवित्र भूमि से संतों का आशीर्वाद लेना कोई नई बात नहीं है, लेकिन सियासी समर में संतों की याद आना निश्चित तौर पर इस पवित्र स्थल के मायने को और भी महत्वपूर्ण कर देता है.
शायद यही वजह है कि रविदास जयंती के एक दिन व पहले शाम को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में बैठकर पंजाब के सियासी समीकरण को साधने के लिए सोशल मीडिया के जरिए 2016 और 2019 के बनारस दौरे के दौरान संत रविदास मंदिर की अपनी स्मृतियों को साझा करके पंजाब के दलित वोटर्स को साधने की कोशिश की. वहीं, आज सूरज निकलने से पहले ही पंजाब के मुख्यमंत्री चन्नी ने पंजाब चुनावों में व्यस्तता होने के बाद भी काशी पहुंचकर यह साफ कर दिए कि पंजाब की सियासत का सबसे महत्वपूर्ण कनेक्शन काशी के इस संत मंदिर से होकर ही गुजरेगा.
आपको बता दें कि संत शिरोमणि रविदास मंदिर 2004 के बाद से चर्चा में आना शुरू हुआ. उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनने के बाद मायावती ने रविदास मंदिर के कायाकल्प की शुरुआत की. पहले मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ. फिर उसके बाद यहां लंगर हॉल और अन्य सुविधाओं में वृद्धि की जाने लगी. खुद मायावती ने संत रविदास के चरणों में स्वर्ण पालकी और स्वर्ण सिंहासन अर्पित करके सियासी समर में बसपा के दलित प्रेम को मजबूत करने की कोशिश की, लेकिन परिस्थितियां बदलने लगी और सियासत में जातिगत समीकरणों के बदलाव के बाद दलित-ब्राह्मण गठजोड़ ने मायावती को राजनीति में पहले आगे और फिर पीछे धकेल दिया.