वाराणसी: धर्म एवं आध्यत्म की नगरी काशी में कई देवी देवता विराजमान हैं. यहां के सभी मंदिर अपनी अलग-अलग विशेषताएं और ऐतिहासिकता समेटे हुए हैं. यहां स्वयंभू आदि शक्तिपीठ काशी मां विशालाक्षी देवी का मंदिर है. यह मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है. ऐसा माना जाता है कि देवी सती का माता यहीं गिरा था. यह मंदिर काशी से भी पुराना है. इसका वर्णन देवी पुराण में भी किया गया है. देवी विशालाक्षी की पूजा उपासना से सौंदर्य और धन की प्राप्ति होती है. यहां दान, जप और यज्ञ करने पर मुक्ति प्राप्त होती है. काशी मां विशालाक्षी देवी मंदिर में यदि कोई 41 बार मंगलवार के दिन कुमकुम का प्रसाद चढ़ाता है तो इससे देवी प्रसन्न हो जाती हैं.
काशी मां विशालाक्षी शक्तिपीठ में बाबा भोले करते थे रात्रि विश्राम, 51 शक्तिपीठों में से एक है - वाराणसी में काशी मां विशालाक्षी शक्तिपीठ मंदिर
वाराणसी में काशी मां विशालाक्षी शक्तिपीठ (Kashi Maa Vishalakshi Shaktipeeth) 51 शक्तिपीठों में से एक है. ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर में बाबा भोलेनाथ रात्रि विश्राम करते थे.
विशाल नेत्रों वाली मां विशालाक्षी (Kashi Maa Vishalakshi Shaktipeeth in Varanasi) का यह स्थान मां सती के 51 शक्ति पीठों में से भी एक है. इनका महत्व कांची की मां (कृपा दृष्टा) कामाक्षी और मदुरै की (मत्स्य नेत्री) मीनाक्षी के समान है. काशी के नव शक्ति पीठों में मां विशालाक्षी का महत्वपूर्ण स्थान है. मीरघाट पर गलियों से होते हुए मां विशालाक्षी का भव्य मंदिर स्थित है. मान्यता के अनुसार, इस स्थान पर मां सती का कर्ण कुण्डल और उनकी आंख गिरी थी. जिससे इस स्थान की महिमा काफी बढ़ गई है. जिसमें मां की दिव्य प्रतिमा स्थापित हैं. महीने के कृष्णपक्ष तृतीया को मां विशालाक्षी (Varanasi Kashi Maa Vishalakshi Shaktipeeth temple) का जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाता है. इस मौके पर मां का भव्य श्रृंगार किया जाता है. जिसका दर्शन करने के लिए आस-पास के श्रद्धालुओं के अलावा काफी संख्या में दक्षिण भारतीय भी आते हैं. चैत्र नवरात्र में मां के दर्शन-पूजन के लिए भी भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है. नवरात्र की पंचमी को नौ गौरी स्वरूप में भी मां विशालाक्षी का दर्शन होता है.
स्थानीय नागरिकों ने बताया कि विशालाक्षी माता आदि शक्ति पीठ हैं. बाबा विश्वनाथ यहां पर रात्रि विश्राम (Lord Bholenath to rest night in Kashi) करते हैं. मंदिर में मुख्य द्वार के सामने जो देवी की मूर्ति स्थापित की गई है. इसके पीछे जो मूर्ति है वह स्वयंभू स्थापित है. जो कुछ खंडित हो गई थी तो चारों शंकराचार्य यहां आए हुए थे. इस मूर्ति की स्थापना के लिए पीछे वाले मूर्ति को हटाने की कोशिश की गई तो राजमिस्त्री द्वारा प्रयास किया गया उसके बदन में आग लग गई थी. इसके बाद शंकराचार्य मंत्र पढ़कर अपना भस्म छोड़ा तो अग्नि शांत हुई. जिसके बाद राजमिस्त्री कुछ दिनों के बाद वह मानसिक विक्षिप्त होकर मर गया. इसके बाद शंकराचार्य ने भव्य मां का पूजन कराकर देवी की नई मूर्ति की स्थापित किया.