वाराणसी:काशी के शिल्पकारों को अब लकड़ी के लिए इधर-उधर भटकने की जरूरत नहीं है, क्योंकि जल्द ही उनके लिए काशी नगरी में लकड़ी का रॉ मैटेरियल बैंक (wood raw material bank) बनाया जाने वाला है. इस बैंक में उन्हें नो प्रॉफिट-नो लॉस की तर्ज पर लकड़ी सस्ते दामों पर मिल जाएगी, जिससे वह बिचौलियों से छुटकारा पाकर उचित दाम में लकड़ी खरीद सकेंगे. बता दें कि इस मटेरियल बैंक के लिए जमीन की तलाश की जा रही है, जल्द ही 3 करोड़ की लागत से इसके भवन का निर्माण किया जाएगा. ये बैंक कारीगरों के लिए संजीवनी का काम करेगा.
शिल्पकारों के लिए बनेगा रॉ मैटेरियल बैंक. बता दें कि लकड़ी का खिलौना बनाने वाले शिल्पकारों को राहत पहुंचाने के लिए सरकार के द्वारा 3 करोड़ की लागत से रॉ मैटेरियल बैंक (raw material bank) बनाने की कवायद की जा रही है. इस बैंक से कारीगरों को सहज और सस्ते दाम में लकड़ी उपलब्ध हो जाएगी. जिला उद्योग केंद्र के उपायुक्त विरेंद्र कुमार ने बताया कि शहर में हर साल लगभग 30 ट्रक लकड़ी से जुड़े विभिन्न प्रकार के उत्पाद तैयार किए जाते हैं. एक ट्रक में 400 घनफुट लकड़िया होती हैं और जिले में लगभग 750 लकड़ी की कारीगर हैं, जो कई सारे उत्पाद बनाते हैं. ऐसे में कारीगरों की मदद के लिए रॉ मैटेरियल बैंक बनाया जा रहा है. यह बैंक बनाने की प्रक्रिया अपने अंतिम दौर पर चल रही है. जमीन मिलते ही इसके भवन का निर्माण किया जाएगा.
उन्होंने बताया कि इस रॉ मैटेरियल बैंक की खास बात यह है कि यहां पर नो प्रॉफिट-नो लॉस की तर्ज पर कारीगरों को लकड़ी मिलेगी, क्योंकि इस रॉ मैटेरियल बैंक बनाने का हमारा मुख्य उद्देश्य कारीगरों को सुविधा पहुंचाना है, जिससे वह सस्ते दामों पर लकड़ी खरीद करके अपनी कारीगरी कर सके और अपनी परंपरा का संरक्षण करने के साथ-साथ अपने दो वक्त की रोटी का भी गुजारा कर सकें.
विश्वकर्मा वुड कार्विंग के सीईओ संदीप विश्वकर्मा बताते हैं कि रॉ मैटेरियल बैंक (raw material bank) हम कारीगरों के लिए एक संजीवनी की तरह है.इससे हमें बहुत राहत मिलेगी सबसे पहले तो बिचौलियों से मुक्ति मिल जाएगी, क्योंकि बीच में बारिश की सीजन में सर्दियों में जब हमारा काम प्रभावित होता है तो हमें लकड़ी के लिए इधर-उधर भटकना पड़ता है. ऐसे में बिचौलियों के कारण हमें काफी ज्यादा कीमत चुका कर के लकड़ी मिलती है, लेकिन अब इस बैंक से हमें इधर-उधर भटकने की जरूरत नहीं होगी.
उन्होंने बताया कि कैमा की लकड़ी मध्यप्रदेश और सोनभद्र के जंगलों में मंगाई जाती है. इससे जुड़े कारिगर राम बाबू बताते हैं कि पहले 1990 के समय में कैमा नहीं होती थी, बल्कि हाथी के दांत पर आकर्षक उत्पाद बनाए जाते थे और यह हाथी दांत दूसरे देशों से आते थे, लेकिन बाद में जब इस पर बैन लग गया तो उसके बाद चंदन की लकड़ी पर हम लोगों ने काम करना शुरू किया, लेकिन 2002 के बाद इस पर भी एक तरीके से प्रतिबंध लग गया और लाइसेंस की कवायद बहुत ज्यादा पेचीदा हो गई. तब हम लोगों ने कैमा की लकड़ी पर काम करना शुरू कर दिया.कैमा की लकड़ी बीच-बीच में नहीं मिलती तब हमें ज्यादा दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.