वाराणसी: इंसान की जिंदगी का अंत महाश्मशान पर अंतिम संस्कार के साथ हो जाता है. लिहाजा वहां का माहौल भी गमगीन बना रहता है. इसके उलट काशी के महाश्मशान मणिकर्णिका घाट का अलग ही नजारा देखने को मिला, जहां काशी के घाट पर नगरवधुएं पहुंचीं और बाबा भोलेनाथ के सामने नृत्यांजलि पेश की. इस दौरान उन्होंने जलती चिताओं के बीच महफिल सजाई.
महाश्मशान मणिकर्णिका घाट पर जलती चिताओं के बीच डीजे की तेज आवाज पर ठुमके लगे और जमकर नोट भी उड़े. कोई इसे सही मान रहा था तो कोई गलत और इसी परंपरा को 378 सालों से लगातार बनारस में निभाया जा रहा है.
महोत्सव के बारे में महाश्मशान नाथ मंदिर के व्यवस्थापक गुलशन कपूर ने बताया कि यह परम्परा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है. राजा मानसिंह ने जब बाबा महाश्मशान नाथ के इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया था. तब मंदिर में बाबा को संगीतांजलि और नृत्यांजलि देने के लिए कोई भी कलाकार आने को तैयार नहीं हुआ था. राजा मानसिंह काफी दुखी हुए और यह संदेश उस जमाने में धीरे-धीरे पूरे नगर में फैलते हुए काशी की नगर वधुओं तक भी जा पहुंचा. यह भी पढ़ें- वकीलों के ड्रेस कोड पर विचार के लिए बार काउंसिल ने बनाई कमेटी
नगर वधूओं ने डरते-डरते अपना यह संदेश राजा मानसिंह तक भिजवाया कि यह मौका अगर उन्हें मिलता हैं तो काशी की सभी नगर वधूएं अपने आराध्य संगीत के जनक नटराज श्मशाननाथ को अपनी भावाजंली प्रस्तुत कर सकती हैं. यह संदेश पाकर राजा मानसिंह काफी प्रसन्न हुए और ससम्मान नगरवधुओं को आमंत्रित किया और तब से यह परंपरा चली आ रही हैं.
वहीं दूसरी ओर नगरवधुओं की मन में आया कि अगर वह इस परंपरा को निरंतर बढ़ाती हैं तो उनको इस नरकिय जीवन से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा. इसलिए आज सैकड़ों वर्ष बीतने के बाद भी यह परम्परा जीवित है और बिना बुलाए यह नगरवधूएं कहीं भी रहे चैत्र नवरात्रि के सप्तमी को यह काशी के मणिकर्णिका धाम स्वयं आ जाती हैं.
यही वजह है कि आज इतने सालों से लगातार जलती चिताओं के बीच होने वाला यह कार्यक्रम अनवरत रूप से जारी है. यहां आने वाले लोग इस कार्यक्रम को देखकर आश्चर्यचकित होते हैं. कुछ लोगों का कहना था कि वहां श्मशान पर इस तरह का आयोजन अपने आप में पहली बार दिखाई दिया. जहां पर हमेशा दुख-दर्द और लोगों को अपनों से बिछड़ने का गम सताता हो वहां इस तरह से जलती चिताओं के बीच महफिल सजना शायद काशी में ही संभव है.
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