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इस बार भी नाटी इमली के भरत मिलाप पर संशय, प्रशासन से अनुमति का इंतजार - चित्रकूट रामलीला

वाराणसी के विश्वप्रसिद्ध नाटी इमली के भरत मिलाप के आयोजन पर इस वर्ष संशय है. इस आयोजन में हर साल देश-विदेश से लाखों भक्‍त आया करते थे.

नाटी इमली के भरत मिलाप पर संशय
नाटी इमली के भरत मिलाप पर संशय

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Published : Oct 11, 2021, 10:09 PM IST

वाराणसी:मंदिरों और गलियों के शहर के साथ-साथ काशी अपनी परंपराओं के लिए भी जानी जाती है. विश्व के सबसे प्राचीनतम शहर में प्राचीन परंपराओं के निर्वाहन के लिए तमाम धार्मिक आयोजन होते हैं. खासकर, काशी के नाटी इमली में भरत मिलाप मेला लक्खा मेले में शुमार है. यहां, आयोजित होने वाले भरत मिलाप को देखने के लिए देश-विदेश से लाखों लोग आते हैं. मात्र 2 मिनट की इस लीला को देखने के लिए लाखों की संख्या में लोग जुटते हैं और भगवान की अद्भुत लीला के गवाह बनते हैं. लेकिन, कोरोना वायरस संक्रमण के चलते लगातार दूसरे साल भी इसके आयोजन पर संशय के बादल मंडरा रहे हैं. अगर, ऐसा हुआ तो लगातार दूसरी बार भी भक्त लीला को देखने से वंचित रह जाएंगे.




478 वर्ष पुरानी है राम लीला
आपको बता दें कि, भरत मिलाप का आयोजन एक या दो वर्ष से नहीं, बल्कि 478 साल से अनवरत चला आ रहा है. लीला का आयोजन चित्रकूट लीला समिति द्वारा किया जाता है. हालांकि, साल 2020 में कोरोना की दस्तक ने इस पर विराम लगा दिया. पिछले साल भी संक्रमण काल में सांकेतिक तौर पर इसका आयोजन किया गया था. इस बार कोरोना के कम हुए केस के बाद लीला समिति लगातार जिला प्रशासन से संपर्क कर रहा है, ताकि सुरक्षा के मानकों को ध्यान रखने के हवाले के बीच लीला की अनुमति मिल जाए, ताकि काशी एक बार फिर इस ऐतिहासिक लीला की साक्षी बने.

नाटी इमली का भरत मिलाप.

चित्रकूट रामलीला समिति के सचिव मोहन कृष्ण अग्रवाल ने बताया कि पिछले वर्ष कोरोना वायरस के कारण ऐतिहासिक भरत मिलाप का आयोजन सांकेतिक तौर पर अयोध्या भवन में किया गया, लेकिन इस बार स्थितियां सामान्य लग रही हैं. ऐसे में ऐतिहासिक भरत मिलाप स्थल पर इसके आयोजन के लिए प्रशासन से अनुमति मांगी जा रही है, लेकिन अभी तक प्रशासन की ओर से आयोजन के लिए अनुमति नहीं मिली है. इसके लिए हम लोग लगातार प्रयासरत हैं.

वैसे अगर, आयोजन की अनुमति नहीं मिली तो 1773 यानी करीब ढाई सौ साल की परंपरा (काशी में भरत मिलाप की अवधि) इस बार कोविड 19 के चलते टूट जाएगी. कहा जाता है कि बंगाली ड्योढ़ी में ही सबसे पहले कोलकाता के आनंद मित्र ने पूजा की शुरुआत की थी.

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