काशी में नहाए खाए के साथ छठ पूजा शुरू. वाराणसी: भगवान भास्कर के आराधना का लोक आस्था के महापर्व छठ पूजा की शुरुआत 17 नवंबर को नहाए खाए के साथ हो गई. आज नहाए खाए के साथ ही इस व्रत की शुरुआत भी हो गई.
ज्योतिषाचार्य पंडित ऋषि द्विवेदी ने बताया कि त्रिदिवसीय नियम-संयम व्रत के बाद चौथे दिन अरुणोदय काल में भगवान भास्कर को अर्घ्य देकर व्रत पारण किया जाता है. आस्था के लोक महापर्व की शुरुआत 17 नवंबर आज से हो रही है जो 20 नवंबर को सूर्य को अर्घ्य देने के साथ ही समाप्त होगी.
डाला छठ या कार्तिक षष्ठी तिथि 18 नवंबर को सुबह 09:53 मिनट पर लगेगी जो 19 नवंबर को प्रात: 07:50 मिनट तक रहेगी. वहीं, 19 नवंबर को सूर्यास्त सायं 05:22 मिनट पर होगा. इसी समय अस्ताचलगामी सूर्य को तो वहीं 20 नवंबर को उदयाचलगामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाएगा. इसके बाद व्रत का पारण होगा.
चतुर्थी, अर्थात नहाय-खाय वाले दिन स्वच्छता का विशेष महत्व होता है. प्रथम दिन घर की साफ-सफाई कर, स्नानादि कर, इस दिन तामसिक भोजन, लहसुन, प्याज इत्यादि का त्याग कर दिन में एक बार भात (चावल), कद्दू की सब्जी का भोजन कर, जमीन पर शयन करना चाहिए. दूसरे दिन खरना. अर्थात, पंचमी को दिन भर उपवास कर सायंकाल गुड़ से बनी खीर का भोजन किया जाता है. तीसरे प्रमुख दिन अर्थात डाला छठ को निराहार रहकर, बांस की सूप, डालियों में विभिन्न प्रकार के फल-मिष्ठान, नारियल, ऋतु फल, ईख आदि रखकर किसी नदी,तालाब, पोखरा, बावड़ी के किनारे दूध तथा जल से अर्घ्य दिया जाता है. साथ ही रात्रि जागरण किया जाता है. यह अर्घ्य अस्ताचलगामी भगवान भाष्कर को दिया जाता है.
दूसरे दिन प्रात: सूर्योदय के समय या अरुणोदय काल में सूर्यदेव को अर्घ्य दिया जाता है. डाला छठ पर्व व्रतियों के सभी तरह के मनोकामनाओं सहित चतुर्दिक सुख देने वाला है. इस व्रत को करने से सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य, प्रभुत्व तथा संतान प्राप्ति के लिए किया जाता है. डाला छठ की महत्ता और व्रतों की अपेक्षाकृत इसलिए भी बढ़ जाता है चूंकि भगवान भास्कर के प्राय: व्रत संतान प्राप्ति के लिए होते हैं. इसमें प्रत्यक्ष देव सूर्य देव की पूजा होती है, लेकिन डाला छठ पर भगवान भास्कर के दोनों पत्नियां उषा, प्रत्युषा सहित छठी मइया की पूजन भगवान आदित्य के साथ होता है.
सब मिलाकर सूर्योपासना की परम्परा में हमारे यहां वैदिक काल से होती रही है. जिसका वर्णन प्राय: वेदों, पुराणों में भरा पड़ा है. देखा जाय तो यह धार्मिक आस्था का पर्व ऋतु संधि काल में आता है, चूंकि पूरे ब्रह्माण्ड में ऊर्जा का सबसे बड़ा केन्द्र भगवान आदित्य को माना गया है. बिना इनके जीवन, पशु, पक्षी, जीव, जन्तु, पेड़, पौधों की परिकल्पना साकार नहीं हो सकती है. भगवान भास्कर का सनातन धर्म में प्रत्यक्ष देव स्वरूप में पूजन होता है. वही डाला छठ का पर्व सर्वप्रथम द्वापर में माता कुंती ने किया था वही त्रेता युग में भगवान श्री राम ने लंका विजय के पश्चात दीपावली पर अयोध्या वापस आने के बाद रामराज लाने के पश्चात यह व्रत माता-पिता सहित भगवान श्री राम ने किया था.
घाट किनारे वेदी बनाने पहुंचे युवा, बोले-परंपरा से लगाव
एमबीए की पढ़ाई करके काशी में अपने परिवार की परंपरा को निभाने पहुंची सोमी इस वक्त गुड़गांव की एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर रही हैं, लेकिन दिवाली पर छुट्टी लेकर तो अपने घर नहीं आई परंतु उन्होंने छठ पर अपनी परंपरा निभाने और चीजों को आगे बढ़ाने के लिए छुट्टी लेकर काशी आना बेहतर समझा. सोमी का कहना है कि वह मूलत पटना की रहने वाली है और बिहार के होने की वजह से यह परंपरा सदियों से निभाई जा रही है. बचपन से इस परंपरा से उन्हें लगाव है. काशी जाकर हमें इस परंपरा से जुड़ने का मौका मिलता है. यह सबसे बड़ी बात है वहीं, बीटेक की पढ़ाई पूरी करके शिवांगी भी मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर रही है लेकिन छुट्टी लेकर वह भी वाराणसी पहुंची है. गंगा घाट पर अपने परिवार के साथ पहुंचकर नहाए खाए में हिस्सा लेने के लिए उतावली दिखाई दे रही है. इस कठिन व्रत को करने वाली विभा सिंह का कहना है कि आज नहाए खाए के साथ इस पर्व की शुरुआत हो रही है. गंगा स्नान करने के बाद घर पहुंच कर वह तमाम तैयारी में जुट जाएंगी और चार दिनों तक भगवान भास्कर की आराधना में व्यस्त रहेंगी. उनका कहना है कि अब यह पर्व तेजी से लोगों के बीच पहुंच चुका है. भगवान भास्कर जीवन देवता के रूप में विराजमान है और सभी की मनोकामना पूर्ण करते हैं. इसलिए लोगों की आस्था उनसे जुड़ती जा रही है और यह पर और भी विस्तृत रूप लेता जा रहा है.
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