वाराणसी: 14 सितंबर हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है. हिंदी मातृभाषा के प्रचार-प्रसार में न जाने कितने रुपये आज भी बर्बाद किए जाते हैं. बावजूद इसके हिंदी अपने उस मुकाम को हासिल नहीं कर सकी है, जिसकी परिकल्पना कभी भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र ने की थी.
हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र. हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र ने हिंदी को मातृभाषा से ऊपर उठाते हुए आम बोलचाल की भाषा के साथ सरकारी कार्यों में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा के लिए लंबी लड़ाई लड़ी. हालांकि आज भी उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका है.
भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 में वाराणसी के चौखम्भा इलाके में हुआ था. इस भवन को आज भी भारतेंदु भवन के नाम से जाना जाता है. घर के अंदर प्रवेश करने के साथ ही कुछ हिंदी साहित्य की खुशबू महसूस होने लगेगी, जिसके लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र को आज भी जाना जाता है. यूं तो भारतेंदु बाबू ने नाटक लिखने की शुरुआत बंगला के विद्या सुंदर से की थी, लेकिन 1867 में लिखे गए इस नाटक से पहले उन्होंने नियमित रूप से खड़ी बोली में अनेक नाटक लिखकर हिंदी नाटक की नींव को शुद्ध रन बनाया. हरिश्चंद्र चंद्रिका, कवि वचन सुधा, बालबोधिनी पत्रिकाओं का सफल संपादन करने के साथ ही भारतेंदु बाबू उत्कृष्ट कवि, व्यंग्यकार, सफल नाटककार, जागरूक पत्रकार और कुशल वक्ता भी थे. मात्र 34 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने हिंदी साहित्य के विशाल संग्रह की रचना कर डाली.
उनकी लेखनी और उनकी इस ओजस्वी प्रतिभा की गमक आज भी उनके इस पुराने मकान में देखने को मिलती है. वह बैठका आज भी मौजूद है, जहां भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र बैठा करते थे. उनके इस बैठके में आज उनकी तस्वीरों के साथ उनके पिता, उनके दादा-परदादा और कई पीढ़ियों की तस्वीरें मौजूद हैं. मकान को संजोकर बड़े ही शानदार तरीके से रखा गया है. सबसे चौंकाने वाली बात तो यह है कि बिना किसी सरकारी मदद के आज भी भारतेंदु हरिश्चंद्र की पांचवी पीढ़ी इसी मकान में रहती है और उनकी स्मृतियों को संजोकर रखा हुआ है.
घर के मुख्य दरवाजे से प्रवेश करते ही सामने पालकी रखी दिखाई देगी, एक पाई की जिसे तामझाम के नाम से जाना जाता है. वह उस वक्त भारतेंदु बाबू और फिर उनके बाद उनकी अन्य आगे की पीढ़ियों की रईसी को जगाने का काम करती थी. बताया जाता है कि इन पालकी में बैठकर ही घर के पुरुष या फिर घर आने वाला कोई बड़ा वीआईपी रास्ते से गुजरता था, वह भी तमाम तामझाम के साथ. इससे उनकी रईसी का पता चलता था. एक अन्य डोली मौजूद है, जिसमें भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की मां और फिर उसके बाद घर की तमाम महिलाएं अपने मायके से विदा होकर यहां आई थीं. हालांकि उनके हाथों के लिखे तमाम साहित्य और अन्य सामग्रियां अब यहां नहीं बल्कि सरकार के पास है, लेकिन इस घर में आज भी हिंदी साहित्य की खुशबू और उस की तासीर महसूस की जा सकती है.
कोर्ट में हिंदी भाषा का प्रयोग सपना था भारतेंदु हरिश्चंद्र का-
भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की पांचवीं पीढ़ी उनके परपोते दीपेश चंद्र चौधरी का कहना है कि भारतेंदु बाबू ने जिस तरह से हिंदी को एक अलग पहचान दिलाने का प्रयास किया उसे आज संजोकर रखना बेहद जरूरी हो गया है. क्योंकि उन्होंने उस वक्त यानी 1882 में हिंदी को अदालती भाषा बनाने का सपना संजोया था. तत्कालीन शिक्षा आयोग के समक्ष हिंदी को अदालती भाषा बनाने की पैरवी कर उन्होंने अपनी गवाही देते हुए साफ कहा था कि यदि हिंदी अदालती भाषा हो जाए तो समन पढ़ाने के लिए 24 आने कौन देगा और साधारण सी अर्जी लिखवाने के लिए कोई रुपया आठ आने क्यों देगा. तब पढ़ने वालों को यह अवसर कहां मिलेगा की गवाही के समन को गिरफ्तारी का वारंट बता दिया जाए.
दीपेश का कहना है कि आज भी सरकारी कामकाज में अदालतों के अंदर जिस तरह से उर्दू भाषा का प्रयोग होता है, वह बहुत ही कठिन है. एक आम व्यक्ति इन भाषाओं को नहीं समझ पाता और वकील जो कहते हैं वह उसे समझना पड़ता है. ऐसी स्थिति में अब जरूरत है सरकार को इस दिशा में ठोस कदम उठाने की और अदालती भाषा को हिंदी भाषा में बदलकर भारतेंदु हरिश्चंद्र के उस सपने को पूरा करने की. यदि सरकार इन बातों पर गौर करें तो यह भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी.