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इस वृक्ष के फलों और पत्तियों का सेवन कर बडे़ हुए थे 'महर्षि पिप्पलाद'

उत्तर प्रदेश के सीतापुर में पौराणीक मान्यताओं के अनुसार महर्षि दधीचि और पत्नी गभस्तिनी के पुत्र की बात करे तो उनका जन्म एक पीपल के वृक्ष के नीचे हुआ था. दधीचि के पुत्र महर्षि पिप्पलाद ने उसी पीपल के पेड़ की पत्तियों और फलों का सेवन किया और बड़े हुए. आज भी वह पीपल का वृक्ष उसी स्थान पर उपस्थित है. उसे लोग 'पिपरी बाबा' के नाम से जानते है और पूजा-अर्चना करते है.

महर्षि दधीचि के पुत्र 'महर्षि पिप्पलाद'.

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Published : Nov 14, 2019, 12:53 PM IST

सीतापुर:धार्मिक परंपराएं और अध्यात्म से जुड़ेजिले के मुख्यालय से 55 किलोमीटर दूर कुर्सी गांव के समीप आदि गंगा नदी के तट पर स्थित एक ऐसा पीपल का वृक्ष है, जिसकी पत्तियों को खाकर महर्षि पिप्पलाद बड़े हुए. भगवान शिव के 19 अवतारों में से एक अवतार महर्षि पिप्पलाद का था. महर्षि पिप्पलाद के स्मरण मात्र से ही शनि देव द्वारा दी गई पीड़ा दूर हो जाती है.

महर्षि दधीचि के पुत्र 'महर्षि पिप्पलाद'.

पिपरी बाबा स्थान का उल्लेख शिवमहापुराण सहित कई अन्य ग्रन्थों में मिलता है. वृक्ष के पास एक सतयुग काल का शिवलिंग स्थापित है. इस स्थान के समीप दो शिव मदिंर स्थित है. मदिंर में प्रतिदिन भारी संख्या में लोग पहुंचते हैं. मदिंर में आने वाले सभी श्रद्धालुओं की मनोकामना पूर्ण होती है.

महर्षि दधीचि की हड्डियों से बना बज्र
पूराणों में वर्णित कथाओं में जब देवलोक पर वृत्रासुर दैत्य के बल के आगे देवता टिक नहीं सके थे, तब देवता ब्रम्हा जी के पास पहुंचे और वृत्रासुर के अतं का उपाय पूछा, तो देवराज इन्द्र को यह ज्ञात हुआ कि महर्षि दधीचि की हड्डियों से बनने वाले बज्र से ही वृत्रासुर दैत्य का वध करना सम्भव है, तब देवराज इन्द्र पृथ्वी लोक पर स्थित महार्षि दधीचि के आश्रम (नैमिष क्षेत्र के मिश्रिख) पहुंचे और महर्षि दधीचि को यह बृतान्त्र बताया. महार्षि दधीचि ने सहज ही अपनी हड्डियों का दान दे दिया.
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वृत्रासुर राक्षस का वध
महर्षि दधीचि की हड्डियों से बनाये गये बज्र से देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर राक्षस का वध किया था. महर्षि दधीचि की पत्नी गभस्तिनी को यह जब पता चला कि उनके पति ने अपने शरीर का त्याग कर दिया है और स्वर्ग चले गये है, तो वह भी सती हो जाने का प्रण कर के आदि गंगा गोमती नदी के तट होते हुए नैमिष क्षेत्र चली गई. वहां आश्रम से लगभग 25 किलोमीटर दूर आदि गंगा नदी के तट पर स्थित एक पीपल के वृक्ष के पास ठहर गई. क्योंकि वह उस समय गर्भ से थी, तो उन्होंने गर्भस्थ शिशु को पीपल के वृक्ष के पास पेट चीर कर रख दिया और वह सती हो गईं.

फल और पत्तियों का सेवान कर बडे़ हुए महर्षि पिप्पलाद
शिशु इस वृक्ष के फल और पत्तियों का सेवान कर के बढ़े हुए, जिससे उनका नाम पिप्पलाद पड़ा. महर्षि पिप्पलाद पीपल के वृक्ष के पास ही अपना आश्रम बनाकर रहने लगे. शिवपुराण के अनुसार महर्षि पिप्पलाद शिव के 19 अवतारों में एक थे. महर्षि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा कि क्या कारण है कि मेरे पिता और माता मेरे जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़ कर चले गये. इसके बाद देवताओं ने बताया कि शनि ग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा हुआ था. यह सुनकर पिप्पलाद क्रोधित हुए और उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया.

श्राप के प्रभाव से शनि आकाश से गिरने लगे. देवताओं के आग्रह पर पिप्पलाद ने शनि देव को इस बात पर छमा कर दिया और कहां कि किसी भी बच्चे को जन्म से 12 वर्ष तक कष्ट नहीं देगें. महर्षि पिप्पलाद का स्मर्ण मात्र से ही शनि की पीड़ा दूर हो जाती है.
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संतान की कामना में पहुचंते है लोग
पिपरी बाबा के स्थान पर ऐसे लोग अधिक पहुंचते है, जिनके कोई संतान नहीं होती है. यहां पर आने वाले सभी लोगों की मनोकामना पूर्ण होती है. यहां प्रतिदिन दूर दराज से श्रद्धालु अपने बच्चों का अन्नप्राशन, मुण्डन कराने के लिए पहुंचते है. यह एक सिद्ध स्थान है. यहां से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता है.

महर्षि दधीचि के पुत्र पिप्पलाद की जन्म स्थली और तपस्थली है. अब यह स्थान स्थानीय बोल चाल की भाषा में पिपरी बाबा के नाम से प्रसिद्ध है. इस स्थान पर वर्ष के कार्तिक पूर्णिमा के दिन मेले का आयोजन किया जाता है. जहां हजारों की संख्या में लोग पहुंचे है. इस स्थान के समीप स्थित आदि गंगा गोमती नदी में स्नान कर यहां पूजा अर्चना करते है.
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