सीतापुर: विश्व विख्यात नैमिषारण्य क्षेत्र में होने वाले 84 कोसीय परिक्रमा का आरम्भ सतयुग में महर्षि दधिचि के द्वारा किया गया. जिसका अनुसरण हर युग में होता रहा है. त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने अपने कुटुंबजनों के साथ इस क्षेत्र की परिक्रमा की. वहीं द्वापरयुग में श्रीकृष्ण के अलावा पाण्डवों द्वारा नैमिषारण्य क्षेत्र की परिक्रमा की गई.
फाल्गुन मास की प्रतिपदा से 84 कोसीय परिक्रमा मेले का होता है आगाज
यह क्षेत्र विश्व का केन्द्र बिन्दु है. यहीं से सृष्टि की रचना का भी आरभ हुआ. यहीं पर आदि गंगा गोमती नदी के तट पर मनु और सतरूपा द्वारा हजारों वर्षों तक कठोर तप किया गया. इस 84 कोस की भूमि पर 33 कोटि देवी देवताओं ने वास किया. यहीं पर 88 हजार ऋषियों ने अपने-अपने आश्रम बनाकर तपस्या की.
ऐसे हुआ 84 कोसीय परिक्रमा मेले का शुभारंभ
मान्यता है कि सतयुग में जब वृत्रासुर दैत्य ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया. तब देवताओं ने देवलोक की रक्षा के लिए वृत्रासुर पर अपने दिव्य अस्त्रों का प्रयोग किया, लेकिन सभी अस्त्र-शस्त्र उसके कठोर शरीर से टकराकर टुकड़े टुकड़े हो गए. अंत में देवराज इंद्र को अपने प्राण बचाकर भागना पड़ा. इसके इंद्रदेव भागकर ब्रह्मा-विष्णु और शंकर के पास पहुंचे, लेकिन तीनों देवों ने कहा कि अभी संसार में ऐसा कोई शस्त्र नहीं है, जिससे वृत्रासुर दैत्य का वध हो सके. त्रिदेवों की यह बात सुनकर इंद्र देव मायूस हो गये. इन्द्र की दयनीय स्थिति देख कर भगवान शंकर ने उन्हें उपाय बताया कि प्रथ्वी लोक पर महर्षि दधीचि रहते है. उन्होंने तप साधना से अपनी हड्डियों को इतना कठोर बना लिया है कि उनकी हड्डियों से अगर अस्त्र बनाया जाए तो उससे वृत्रासुर मारा जा सकता है. उनकी शरण में जाओ और उनसे संसार के कल्याण के लिए उनकी अस्थियों का दान करने के लिए याचना करो. इन्द्र ने ऐसा ही किया. वह नैमिषारण्य क्षेत्र में स्थित उनके आश्रम पर पहुंचे और इन्द्र ने महर्षि दधीचि को पूरा वृतांत बताया और महर्षि से उनकी अस्थियों का दान मांगा. जिस पर दधीचि जी सहज अपनी हड्डियों के दान के लिए तैयार हो गये.
33 कोटि (श्रेष्ठ) देवी-देवताओं को 84 कोस की परिधि में दिया गया था स्थान
इस दौरान महर्षि दधीचि ने इन्द्र से कहा, देवराज मैंने अपने जीवन काल में एक भी तीर्थ नहीं किया है. सिर्फ तप व साधना में ही लीन रहा हूं. इसलिए मैं चाहता हूं कि संसार के समस्त तीर्थों और समस्त देवताओं के दर्शन कर लूं. फिर अपनी हड्डियों का दान करूं. यह सुन कर इन्द्र देव सोच में पड़ गये कि यदि महर्षि सभी तीर्थ करने चले गये तो बहुत समय बीत जायेगा. इस पर देवराज ने संसार के समस्त तीर्थों और 33 कोटि (श्रेष्ठ) देवी-देवताओं को नैमिषारण्य क्षेत्र में आमंत्रित किया. उन सभी को 84 कोस की परिधि में अलग अलग स्थान दिया.