श्रावस्ती:होली के पर्व पर हर समाज अपनी परंपराओं को निभाता है. ऐसे में थारू समाज भी अपनी परंपरा का निर्वहन करता है. गांव के मुखिया को उबटन (बुकवा) लगाकर होरियारों की टीम होली की शुरूआत करती है. गांव की तीन परिक्रमा लगाने के साथ ही होली का उत्साह समाज के लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगता है. इसके बाद समाज के युवा कीचड़ की होली खेलते हैं. यह परंपरा बरसों से निभाई जा रही है.
श्रावस्ती के आदिवासी थारू गांव में जमकर खेलते हैं रंग. भारत-नेपाल सीमा से सटे श्रावस्ती के 12 से अधिक गांवों में थारू जनजातियां बसी हैं. यहां इनकी आबादी तकरीबन 20 हजार से अधिक होगी. वनों के झुरमुटों तथा नेपाल की पहाड़ी वादियों के कोख में बसे थारू जनजाति की वेशभूषा व रहन-सहन की अलग पहचान होती हैं. थारू जनजाति के गांव रनियापुर के शिक्षक अयोध्या प्रसाद राना बताते हैं कि थारू जनजाति में होली वसंत पंचमी से ही शुरू होती है. होलिका दहन की पूर्व संध्या पर माहौल अत्यंत आकर्षक होता है.
होली के दौरान मटकी फोड़ का भी होता है आयोजन. भचकाही के शिक्षक कर्मवीर राना ने बताया कि रंग-बिरंगे परिधान में थारू अपने-अपने गांवों में परंपरागत तरीके से होली का त्योहार मनाते हैं. इनमें महिलाएं भी पीछे नहीं रहती है. भारी भरकम चांदी व गिलट के गहनों से लदी थारू जनजाति की महिलाओं का अलग अंदाज नजर आता है.
ढाढूपुरवा के सुरेंद्र कुमार थारू बताते हैं कि गाते-बजाते थारू युवा गांव के तीन चक्कर लगाकर गांव के मुखिया के दरवाजे पर पहुंचकर पहले सरसों भूनकर बनाए गए विशेष लेप (बुकवा) को मुखिया को लगाते हैं. मुखिया उन्हें खाने-पीने के सामान के साथ रुपये भी देते है. इसके बाद फाग का राग और रंग शुरू हो जाता है.
रास्ते में जो भी मिलता है उसे दक्षिणा देनी पड़ती है. गुरु के दरबार में होली का समापन होता है. श्रावस्ती के भचकाही ग्राम में रामधन मोतीपुर कला में राधेश्याम व जंगली प्रसाद थारू समुदाय के गुरू हैं. भचकाही की प्रधान मनकुमारी व मोतीपुर कला के प्रधान राधेश्याम का कहना है कि थारू समुदाय के लोग गुरु के यहां पहुंचकर उन्हें गुलाल-अबीर लगाते हैं. परंपरागत वाद्य वैरागनी ढपला बजाकर भजन गाकर सुख शांति का आशीर्वाद लेते हैं.
थारू समुदाय के भागीराम बताते हैं कि होली जलाने के लिए चिरागी (चौकीदार) घर-घर जाकर सूचना देता है. गांव के सभी लोग एक -एक लकड़ी लेकर जब एकत्र हो जाते हैं तो चिरागी होलिका में आग लगाता है. आग लगाने से पहले होलिका का फेरा चिरागी लगाता है. मंदरा बजाकर गांव के देवता को खुश किया जाता है. वे बताते हैं कि पूजा में गेहूं की बाली भूनते हैं, जिसको प्रसाद के रूप में सभी लोग खाते हैं. होलिका की राख लेकर शाम को लोग एक-दूसरे को टीका लगाते हैं व गले मिलते हैं.
मसहा कला के राम करतार राना ने बताया कि शाम को होली जलते समय घर के छोटे-छोटे बच्चों का कपड़ा लोग सेंकते हैं. मान्यता है कि इससे बच्चों को साल भर किसी बीमारी की नजर नहीं लगती है. इसके बाद सुबह सभी लोगों के सामने गांव के मुखिया को बुकवा लगाया जाता है. थारू समुदाय की अर्चना व उर्मिला बताती हैं कि महिलाएं धूल बुझाने के लिए एक लोटा जल, चावल, बढ़नी, रंग, अबीर साथ लाकर राख बुझाती हैं, फिर मंडवा पूजती हैं.
होली के दूसरे दिन खेली जाती कीचड़ की होली
मसहा कला के राम करतार राना बताते हैं कि होली के दूसरे दिन कीचड़ की होली खेली जाती है. इसमें महिला- पुरुष सभी लोग भाग लेते हैं. दिनभर कीचड़ होली खेलने के बाद बीच गांव में ऊपर रखे मटके को नाचते गाते होरियारों की टीम फोड़ती है. मटका फोड़ने वाले को गांव का वरिष्ठ नागरिक सम्मानित भी करता है.
ईश्वरदीन चौधरी बताते हैं कि रंग-बिरंगे परिधानों से सुसज्जित लोग अपने-अपने गांवों में परंपरागत तरीके से त्योहार मनाते हैं. घर की बनी जाड़ (चावल की बनी शराब) भी उत्सव में रंग जमाती है. वे बताते हैं कि इस पर्व पर घर में नए अन्न का पूजन भी होता है.
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