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kakori kand: शाहजहांपुर के आर्य समाज मंदिर में काकोरी कांड की तय हुई थी रूपरेखा, तिलमिला उठी थी ब्रिटिश हुकूमत

काकोरी कांड (kakori kand) के लिए शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद अशफाक उल्ला खां और शहीद ठाकुर रोशन सिंह समेत 10 क्रांतिकारियों को देश हमेशा याद करेगा. आज पूरा देश इस काकोरी कांड की वर्षगांठ मना रहा है. आईए जानते हैं क्या है काकोरी कांड?

‘काला पानी’ अर्थात आजीवन कारावास तक की सजा दी गई थी।
‘काला पानी’ अर्थात आजीवन कारावास तक की सजा दी गई थी।

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Published : Aug 9, 2023, 5:30 PM IST

शहीद अशफाक उल्ला खां के प्रपौत्र ने बताया.

शाहजहांपुरःआजादी के अमृत महोत्सव के तहत पूरा देश काकोरी कांड की वर्षगांठ मना रहा है. आज ही के दिन 9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड को अंजाम दिया गया था. जिसमें शाहजहांपुर जनपद का बहुत बड़ा योगदान है. क्योंकि काकोरी कांड की रूपरेखा तैयार करने और उसे अंजाम देने में शाहजहांपुर के 3 महानायक अशफाक उल्ला खान, राम प्रसाद बिस्मिल और ठाकुर रोशन सिंह का बड़ा योगदान था. इस कांड के बाद अंग्रेजों ने 19 दिसंबर 1927 को तीनों महानायकों को अलग-अलग जनपदों में फांसी दी थी.

शहीद अशफाक उल्ला खां.

काकोरी कांड की जयंतीःइतिहास के पन्नों में आज का दिन बेहद अहम माना जाता है. क्योंकि आज ही के दिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों से लोहा लिया था. जिसको पूरा देश काकोरी कांड के नाम से जानता है. उस समय देश के आंदोलन में गुलामी की बेड़ियां तोड़ने के लिए पूरा देश व्याकुल था. इसके लिए क्रांतिकारियों की कुर्बानियां दी जा रही थी, देश के जेल क्रांतिकारियों से भरे जा रहे थे. इसके बाद भी देश के क्रांतिकारी वीर देश को आजाद कराने में अपनी कुर्बानी दे रहे थे.

शहीद अशफाक उल्ला खां.

आर्य समाज मंदिर का काकोरी कांड से संबंधःशाहजहांपुर के आर्य समाज मंदिर में काकोरी कांड की रूपरेखा तैयार की गई. काकोरी कांड को अंजाम देने के लिए अशफाक उल्ला खान, राम प्रसाद बिस्मिल और ठाकुर रोशन सिंह ने तय किया कि सुबह शाहजहांपुर से सहारनपुर पैसेंजर ट्रेन जाती है, जिसमें अंग्रेजों का खजाना जाता है. उस ट्रेन को लूटेंगे और लूटे गए पैसों से हथियारों को खरीदेंगे. इसे लेकर 9 अगस्त 1925 को शाहजहांपुर से सहारनपुर पैसेंजर में तीनों महानायकों समेत 10 क्रांतिकारी सवार हो गए. इस ट्रेन में चढ़े क्रांतिकारियों ने काकोरी के पास ट्रेन से अंग्रेजों का खजाना लूट लिया. इस लूट कांड के बाद ब्रिटिश हुकूमत तिलमिला उठी थी. इसके बाद राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और ठाकुर रोशन सिंह को अंग्रेजी हुकूमत ने गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया. 19 दिसंबर 1927 को अलग-अलग जिलों में तीनों महाननायकों को फांसी दे दी गई.


क्रांतिकारियों की दोस्ती हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसालःबता दें कि शहीद अशफाक उल्ला खां का जन्म शहर के मोहल्ला एमनजई जलालनगर में 22 अक्टूबर 1900 को हुआ था. उन्होंने शाहजहांपुर के एवी रिच इंटर कॉलेज में पढ़ाई की थी. यहां राम प्रसाद बिस्मिल उनके सहपाठी थे. यह दोनों कॉलेज में पढ़ने के बाद आर्य समाज मंदिर में देश की आजादी की रूपरेखा तैयार करते थे. जिले का यह आर्य समाज का मंदिर हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल है. इस मंदिर में पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के पिता पुजारी थे. इसी आर्य समाज मंदिर में पंडित राम प्रसाद बिस्मिल (पंडित) और अशफाक उल्ला खां (कट्टर मुसलमान) की दोस्ती आज भी हिंदू-मुस्लिम एकता की मिसाल पेश करती है. दोनों एक ही थाली में खाना खाया करते थे. मुस्लिम होते हुए भी अशफाक उल्ला खां आर्य समाज मंदिर में अपना ज्यादा से ज्यादा समय बिताते थे. जहां वह देश की आजादी के लिए इस मंदिर में नई-नई योजनाएं बनाया करते थे. इन दोनों की अमर दोस्ती ने काकोरी कांड करके अंग्रेजों से लोहा लिया था. काकोरी कांड के बाद दोनों दोस्तों को अलग-अलग जेलों में फांसी दे दी गई और दोनों 19 दिसंबर 1927 को हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए. इसके अलावा अन्य क्रांतिकारियों को ‘काला पानी’ या आजीवन कारावास सजा दी गई थी.


शहीद ने ईटीवी भारत को बतायाःशहीद अशफाक उल्ला खां के प्रपौत्र अशफाक उल्ला खां ने ईटीवी भारत को बताया कि उनकी फांसी से पहले उनका परिवार मिला था. उन्होंने खुशी जाहिर की थी कि मैं देश की आजादी के लिए फांसी के फंदे पर जा रहा हूं. उन्होंने अपनी मां को एक खत भी लिखा था. जिसमें उन्होंने लिखा था 'ऐ दुखिया मां मेरा वक्त बहुत करीब आ गया है. मैं फांसी के फंदे पर जाकर आपसे रुखसत हो जाऊंगा. लेकिन आप पढ़ी-लिखी मां हैं. ईश्वर ने कुदरत ने मुझे आपकी गोद में दिया था. लोग आपको मुबारकबाद देते थे. मेरी पैदाइश पर और आप लोगों से कहा करते थे कि यह अल्लाह ताला की अमानत है. अगर मैं उसकी अमानत था, वो इस देश के लिए अपनी अमानत मांग रहा है तो आपको अमानत में खयानत नहीं करनी चाहिए और इस देश को सौंप देना चाहिए'. अशफाक उल्ला खान से जब फांसी से पहले आखिरी आरजू पूछी गई तो उन्होंने एक आखरी शेर कहा था," कुछ आरजू नहीं है. आरजू तो यह है रख दे कोई जरा सी खाके वतन कफन में."

"शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का बस यही बाकी निशां होगा"


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